Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
View full book text
________________
३४६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६ सम्म० सम्मामिभंगो। जोदिसि० विदियपुढविभंगो। सोहम्मादि जाव सव्वट्ठा त्ति द्विदिविहत्तिभंगो। एवं जाव ।
६ ६९६. भावो सव्वत्थ ओदइयो भावो । * अप्पाबहुवे।
६६९७ द्विदिसंकमस्स जहण्णुकस्सभेयभिण्णस्स अप्पाबहुअमिदाणि वत्तइस्सामो त्ति पइजावक्कमेदमहियारसंभालणवयणं वा । तं पुण दुविहमप्पाबहुअं जहण्णुक्कस्सट्ठिदिसंकामयजीवविसयं जहण्णुकस्ससंकमद्विदिविसयं चेदि। तत्थ जीवप्पाबहुअपरूवणा सुगमा त्ति तमपरूविय ट्ठिदिअप्पाबहुअमेव परूवेमाणो सुत्तमुत्तरमाह
* सव्वत्थोवो णवणोकसायाणमुक्कस्सहिदिसंकमा ।
६९८. द्विदिअप्पाबहुअं दुविहं जहण्णुकस्सद्विदिविसयभेदेण । तत्थुक्कस्से ताव पयदं। तस्स दुविहोणिद्देसो-ओघेणादेसेण य । तत्थोघेण णवणोकसायाणमुक्कस्सट्ठिदिसंकमो उवरि भण्णमाणासेसुक्कस्सट्ठिदिसंकमपडिबद्धपदेहितो थोवयरो त्ति उत्तं होइ । एदस्स पमाणं बंधसंकमणोदयावलियाहि परिहीणचालीससागरोवमकोडाकोडिमेत्तं ।
* सोलसकसायाणमुक्करसहिदिसंकमो विसेसाहित्रो। ६९९. कुदो ? दोआवलिऊणचालीससागरोवमकोडाकोडिपमाणत्तादो ।
सम्यग्मिथ्यात्वके समान है । ज्योतिषी देवोंमें दूसरी पृथिवीके समान भंग है। सौधर्म स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें स्थितिविभक्तिके समान भंग है।
६६६६. भाव सर्वत्र औदयिक भाव है। * अल्पबहुत्वका प्रकरण है।।
5६६७. जघन्य और उत्कृष्ट भेदरूप प्रकृत स्थितिसंक्रमके अल्पबहुत्वको इस समय बतलाते हैं इस प्रकार यह प्रतिज्ञा वाक्य है या अधिकारकी सम्हाल करनेवाला वचन है। वह अल्पबहुंत्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामक जीवोंको विषय करनेवाला और जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमको विषय करनेवाला। उनमेंसे जीव अल्पबहुत्वका कथन सुगम है इसलिए उसका कथन न करके स्थिति अल्पबहुत्वका ही कथन करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं
* नौ नोकषायोंका उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम सबसे स्तोक है।
६६६८. जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिको विषय करनेवाला होनेसे स्थिति अल्पबहुत्व दो प्रकारका है। उनमेंसे सर्वप्रथम उत्कृष्टका प्रकरण है। उसका निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । उनमेंसे ओघसे नौ नोकषायोंका उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम आगे कहे जानेवाले उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमसे सम्बन्ध रखनेवाले पदोंकी अपेक्षा स्तोकतर है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इसका प्रमाण बन्धावलि, संक्रमावलि और उदयावलिसे न्यून चालीस कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण है।
* उससे सोलह कषायोंका उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम विशेष अधिक है। ६६६६. क्योंकि यह दो आवलिकम चानीस कोडाकोड़ी सागरप्रमाण है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org