Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
View full book text
________________
गा० ५८] उत्तरपयडिटिदिसंकमे सामित्तं
३२१ मेत्थ दट्ठव्वं । समत्त-अणंताणु०४ ओघभंगो। सम्मामि० उव्वेल्लमाणस्स चरिमद्विदिखंडए चरिमसमयसंकामे० । एवं पढमाए । विदियादि जाव छट्ठि त्ति मिच्छ०बारसक०-णवणोक० द्विदिविहत्तिभंगो । सम्मत्त०-सम्मामि०-अणंताणु०४ जह० द्विदिसं० कस्स ? अण्णद० उव्वेल्लमाणस्स विसंजोएंतस्स च चरिमे डिदिखंडए चरिमसमयसंका० । सत्तमाए मिच्छत्त०-बारसक०-भय-दुगुंछ० जह० द्विदिविहत्तिभंगो। णवरि संतकम्म वोलेऊणावलियादीदस्स भय-दुगुंछाणं दोआवलियादीदस्स। सम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणु०४ विदियपुढविभंगो। सत्तणोकसायाणं द्विदिविहत्तभंगो, संतसमाणबंधादो अंतोमुहुत्तादीदस्स पडिवक्खबंधगद्धागालणेण सामित्तं पडि तत्तो भेदाभावादो । णवरि सगबंधावलियचरिमसमए सामित्तं गहेयव् ।
६५४. तिरिक्खेसु मिच्छ०-बारसक०-भय-दुगुंछ० ठिदिविहत्तिभंगो। णवरि संतकम्मं वोलेऊणावलियादीदस्स भय-दुगुंछाणं दोआवलियादीदस्स । सम्मत्त० सम्मामि०. अणंताणु०४ णारयभंगो । सत्तणोक० द्विदिविहत्तिभंगो । णवरि सण्णिपंचिंदियतिरिक्खआवलिके अन्तिम समयमें प्रकृत जघन्य स्वामित्व जानना चाहिये । सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य स्थितिसंक्रमका स्वामी ओघके समान है। जो सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करनेवाला जीव अन्तिम स्थितिकाण्डकके अन्तिम समयमें संक्रम कर रहा है उसके सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसंक्रम होता है। इसी प्रकार पहली पृथिवीमें जानना चाहिये। दूसरीसे लेकर छठी पृथिवीतकके नारकियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंके जघन्य स्थितिसंक्रमका स्वामी स्थितिविभक्तिके समान है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका जघन्य स्थितिसंक्रम किसके होता है ? जो सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करनेवाला और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करनेवाला जीव अन्तिम स्थितिकाण्डकके अन्तिम समयमें संक्रम कर रहा है उसके होता है। सातवीं पृथिवीमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साके जघन्य स्थितिसंक्रमका स्वामी स्थितिविभक्तिके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि जिसे सत्कर्मके समान स्थितिबन्ध होनेके बाद एक आवलि काल हुआ है उसके मिथ्यात्व और बारह कषायोंका जघन्य स्थितिसंक्रम होता है तथा भय और जुगुप्साका सत्कर्मके समान स्थितिबन्ध होने के बाद दो श्रावलि काल व्यतीत हुआ है उसके भय और जुगुप्साका जघन्य स्थितिसंक्रम होता है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य स्थितिसंक्रमका स्वामी दूसरी पृथिवीके समान है । तथा सात नोकषायोंके जघन्य स्थितिसंक्रमका स्वामी स्थितिविभक्तिके समान है, क्योंकि सत्कर्मके समान बन्धके द्वारा जिसने अन्तर्मुहूर्त काल विता दिया है उसके प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धक कालको गलानेकी अपेक्षा स्वामित्वके प्रति उससे इसमें कोई भेद नहीं है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अपनी बन्धावलिके अन्तिम समयमें यह जघन्य स्वामित्व ग्रहण करना चाहिये।
६६५४. तिर्यश्चोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साके स्थितिसंक्रमका जघन्य स्वामी स्थितिविभक्तिके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सत्कर्मके समान स्थितिबन्ध होनेके बाद एक आवलि होने पर मिथ्यात्व और बारह कषायोंका तथा सत्कर्मके समान स्थितिबन्ध होनेके बाद दो आवलि काल जाने पर भय और जुगुप्साका प्रकृत जघन्य स्वामित्व कहना चाहिये। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य स्थितिसंक्रमका स्वामी नारकीके समान है। सात नोकषायोंके जघन्य स्थितिसंक्रमका स्वामी स्थितिविभक्तिके समान है। किन्तु इतनी विशेषता
४१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org