Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 341
________________ ३२८ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ बंधगो ६ इत्थि वेदस्स सोदएण चढिदस्स एसो चैव भंगो । परोदएण वि चढिदस्स छण्णोकसायभंगो त्ति । एवमोघेण सव्वकम्माणं जहण्णट्ठिदिसंकमकालो सुत्ताणुसारेण परूविदो । एदेण सूचिदम जहण्णट्ठिदिसंकमकालमणुवण्णइस्सामो - मिच्छ० अज० विदिसं० अणादिओ अपजवसिदो अणादिओ सपजवसिदो वा । सम्म० सम्मामि० अज० जह० अंतोमु०, उक्क० वेछावट्टिसागरो० तीहि पलिदो० असंखे० भागेहि सादिरेयाणि । सोलसक०णवणोक० अज० तिष्णि भंगा । तत्थ जो सो सादिओ सपज्जवसिदो जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० अद्धपोग्गलपरियङ्कं देणं । एवमोघपरूवणा समत्ता । स्वोदयसे चढ़े हुए जीवकी अपेक्षा यही भङ्ग है । तथा परोदयसे चढ़े हुए जीवकी अपेक्षा भी छह कषाय के समान भङ्ग है । इस प्रकार श्रोघसे सब कर्मों के जघन्य स्थिति संक्रामकका काल सूत्र के अनुसार कहा । अब इससे सूचित होनेवाले अजघन्य स्थितिसंक्रामकका काल बतलाते हैंमिथ्यात्व के अजघन्य स्थितिसंक्रामकका काल अनादि अनन्त या अनादि सान्त है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व अजघन्य स्थितिसंक्रामकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके तीन असंख्यातवें भागों से अधिक दो छयासठ सागरप्रमाण है । सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके अजघन्य स्थितिसंक्रमके तीन भङ्ग हैं । उनमें से जो सादि- सान्त भङ्ग है उसकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है । विशेषार्थ - यहाँ मोहनीयकी अट्ठाईस प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट काल बतलाया गया है । इन अट्ठाईस प्रकृतियों में से मिथ्यात्त्र, सम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धचतुष्क और मध्यकी आठ कषाय ये चौदह प्रकृतियां ऐसी हैं जिनका जघन्य स्थितिसंक्रम अन्तिम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिके पतनके समय प्राप्त होता है । क्रोधसंज्वलन, मानसंज्वलन, मायासंज्वलन और पुरुषवेद ये चार प्रकृतियां ऐसी हैं जिनका जघन्य स्थितिसंक्रम अन्तिम स्थितिबन्धके संक्रम के अन्तिम समय में प्राप्त होता है और सम्यक्त्व तथा संज्वलन लोभ ये दो प्रकृतियां ऐसी हैं जिनका जघन्य स्थितिसंक्रम इनकी क्षपणा में एक समय अधिक एक आवलि काल शेष रहने पर प्राप्त होता है । यह उक्त प्रकारसे विचार करने पर इन प्रकृतियों के जघन्य स्थितिसंक्रमका केवल एक समय काल प्राप्त होता है, अतः इनके जघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय बतलाया है अब रहीं शेष छह नोकषाय, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद ये आठ प्रकृतियाँ सो इनका जघन्य स्थितिसंक्रम अन्तिम स्थितिकाण्डकके पतन के समय प्राप्त होने से चूर्णिकार ने इनके जघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बतलाया है । यहां इतनी विशेषता है कि छह नोकषायों की अपनी क्षपणा के समय प्रथम स्थिति सम्भव न होनेसे इनके जघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक प्रकारका ही प्राप्त होता है । किन्तु 1 वेद और नपुंसक वेदका यह काल दो प्रकारसे प्राप्त किया जा सकता है । प्रथम प्रकार में प्रथम स्थितिकी प्रधानता है और दूसरे प्रकार में प्रथम स्थितिकी विवक्षा न रहकर केवल अन्तिम स्थितिकाण्डकके ऊत्कीरणकालकी विवक्षा रहती है। जिसका निर्देश स्वयं टीकाकारने किया ही है । इस प्रकार श्रघसे जघन्य स्थितिसंक्रमके कालका विचार करके अब अजघन्य स्थितिसंक्रमके जघन्य और उत्कृष्ट कालका विचार करते हैं - मिथ्यात्वकी अजघन्य स्थिति के दो प्रकार ही सम्भव हैंअनादि-अनन्त और अनादि- सान्त | अभव्य जीवोंके और अभव्योंके समान भव्य जीवोंके अनादि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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