Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 342
________________ गा० ५८] उत्तरपडिट्ठिदिसंकमे एयजीवेण कालो ३२९ ६६६. संपहि आदेसपरूवणट्ठमुच्चारणं वत्तइस्सामो । तं जहा—आदेसेण रइय० मिच्छ०-बारसक०-भय-दुगुंछ० जह० द्विदिसं० जहण्णु० एयसमओ । अज० जह० समयाहियावलिया, उक्क० तेत्तीसं सागरो० । एवं सत्तणोक०।णवरि अज० जह० अंतोमु०। सम्म०-सम्मामि०-अणंताणु०४ जह० जहण्णु० एयस० । अज० जह० एयसमओ, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि । एवं पढमाए । णवरि सगढिदी। विदियादि जाव सत्तमा ति हिदिविहत्तिभंगो। अनन्त विकल्प होता है और शेष सभी भव्योंके अनादि-सान्त विकल्प होता है । यतः स्थितिके ये दो विकल्प प्राप्त होते हैं अतः इनका संक्रमकाल भी दो ही प्रकारका जानना चाहिये। इसीसे यहाँ मिथ्यात्वके अजघन्य स्थितिसंक्रमका काल पूर्वोक्त विधिसे दो प्रकारका बतलाया है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ता प्राप्त होनेके बाद उनकी क्षपणा द्वारा कमसे कम अन्तमुहूर्तकालके भीतर जघन्य स्थिति प्राप्त हो जाती है, अतः इन दो प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य काल अन्तमुहूर्त बतलाया है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट सत्त्वकाल पल्यके तीन असंख्यातवें भाग अधिक दो छयासठ सागर होता है। इसीसे यहाँ इन दो प्रकृतियोंक अजघन्य स्थितिसंक्रमका उत्कृष्ट काल उक्तप्रमाण बतलाया है। अब रहीं सोलह कषाय और नौ नोकषाय ये पच्चीस प्रकृतियाँ सो इनके अजघन्य स्थितिसंक्रमके तीन भङ्ग प्राप्त होते हैंअनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त । अनादि-अनन्त विकल्प अभव्योंके या अभव्योंके समान भव्योंके होता है। अनादि-सान्त विकल्प उन भव्योंके होता है जिन्होंने अभीतक उपशमश्रेणिको नहीं प्राप्त किया है और सादि-सान्त विकल्प उन भव्योंके होता है जो उपशमश्रेणिपर चढ़कर पुनः उससे च्युत हुए है । प्रकृतमें इसी तीसरे विकल्पकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल बतलाया है। जो जीव अन्तर्मुहूर्तके भीतर दो बार उपशमश्रेणिपर चढ़ता है उसके अजघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है । तथा जो जीव अर्धपुद्गलपरिवर्तन कालके आदि और अन्तमें श्रेणीपर चढ़ता है उसके अजघन्य स्थितिसंक्रमका उत्कृष्ट काल कुछकम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण प्राप्त होता है। __इस प्रकार अोघप्ररूपणा समाप्त हुई। ६६६६. अब आदेशका कथन करनेके लिए उच्चारणाको बतलाते हैं। यथा-आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साके जघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य काल एक समय अधिक एक आवलि है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। इसी प्रकार सात नोकषायोंके विषयमें जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके अजघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। इसी प्रकार पहली पृथिवीमें जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि यहाँ अजघन्य स्थितिसंक्रमका उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण कहना चाहिये । दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें स्थितिविभक्तिके समान भङ्ग है। विशेषार्थ-नरकमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साका जघन्य स्थितिसंक्रम एक समय अधिक एक श्रावलिके बाद एक समयके लिए प्राप्त होता है, अतः इनके जघन्य स्थितिसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा इस जघन्य स्थितिसंक्रमके पूर्व एक ४२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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