Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 338
________________ गा० ५८] उत्तरपयडिटिदिसंकमे एयजीवेण कालो ३२५ जह० एयस०, उक० तेत्तीसं सागरो । एवं सव्वणेरइय०-पंचिंतिरिक्ख३मणुस०३-देवा जाव सहस्सार ति। णवरि सव्वेसिमणुक० जह० एयसमओ, उक्क० सगद्विदी। ६६१. तिरिक्खेसु मिच्छ०-सोलसक०-णवणोक० उक० डिदिसंका० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० आवलिया । अणु० जह० एयस०, उक्क० अणंतकालमसंखेजपोग्गलपरियढें । सम्म०-सम्मामि० उक्क० द्विदिसंका० जहण्णु० एयस० । अणुक्क० जह० एयसमओ, उक्क तिण्णि' पलिदो० सादिरेयाणि। पंचिं०तिरि०अपज० मिच्छ०सोलसक०-णवणोक० उक्क० ट्ठिदिसं० जहण्णु० एयसमओ। अणु० जह. खुद्दाभव० प्रकार सब नारकी, पंचेन्द्रिय तियंचत्रिक, मनुष्यत्रिक, सामान्य देव और सहस्रार कल्प तकके देवोंमें जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि इन सभीमें अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। विशेषार्थ—यहाँ और सब काल तो जिस प्रकार ओघप्ररूपणामें घटित करके बतला आये हैं उसी प्रकार जान लेना चाहिये। किन्तु सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकके उत्कृष्ट कालमें और कुछ प्रकृतियोंके जघन्य कालमें कुछ विशेषता है। बात यह है कि जिस मार्गणाकी जितनी कायस्थिति सम्भव है वहाँ उतने काल तक सभी प्रकृतियों की अनुत्कृष्ट स्थिति और उसके संक्रमका पाया जाना सम्भव है, अतः सर्वत्र अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण कहा है। जिस मार्गणामें भवस्थिति और कायस्थितिमें अन्तर नहीं है वहाँ भवस्थितिको ही कायस्थिति जानना चाहिये । और जिस मार्गणामें इनमें अन्तर है वहाँ कायस्थिति लेनी चाहिये । अब जघन्य कालका खुलासा करते हैं। बात यह है कि जिस जीवने भवके उपान्त्य समयमें उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम करके अन्तिम समयमें एक समयके लिये मिथ्यात्व और सोलह कषायोंका अनुत्कृष्ट स्थितिसंक्रम किया और दूसरे समयमें मरकर अन्य गतिको प्राप्त हो गया उसके उक्त प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट स्थितिसंक्रमका जघन्य काल एक समय पाया जाता है। इसी प्रकार जिसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके संक्रममें एक समय शेष रहने पर जो विवक्षित गतिको प्राप्त हुआ है उसके उस गतिमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है । इसीसे इन मार्गणाओंमें उक्त प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकका जघन्य काल एक समय बतलाया है। ६६६१. तिर्यंचोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल चार नोकषायोंके सिवा शेष सबका अन्तर्मुहूर्त है तथा चार नोकषायोंका एक आवलिप्रमाण है । अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है तथा अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्यप्रमाण है। पंचेन्द्रियतियच अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकका जघन्य १. अप्रतौ विदिसंका. जहएणु० एयस० उक्क०, तिएिण इति पाठः। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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