Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० ५८ ]
हिदिसंकमे पोसणं
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जघन्य स्थितिके संक्रामक नारकियोंके सिवा शेष सब नारकियोंका समावेश हो जाता है। और इनका वर्तमानकालीन स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण तथा अतीतकालीन स्पर्शन त्रस नानीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भागप्रमाण है। इसीसे अजघन्य स्थितिके संक्रामकोंका स्पर्शन उक्तप्रमाण बतलाया है। प्रथम पृथिवीके नारकियोंका स्पर्शन उनके क्षेत्रके समान ही है । अतः यहाँ प्रथम पृथिवीमें जघन्य और अजघन्य स्थितिके संक्रामकों का स्पर्शन क्षेत्रके समान बतलाया है । दूसरेसे लेकर छठे नरक तक जघन्य स्थितिसंक्रम उन सम्यग्दृष्टि नारकियोंके अन्तिम समयमें होता है जिन्होंने वहाँ उत्पन्न होनेके अन्तर्मुहूर्त बाद सम्यक्त्वको प्राप्त कर लिया है और अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना :कर ली है। तथा सातवें नरकमें जघन्य स्थितिसंक्रम उन मिथ्यादृष्टि नारकियोंके सम्भव है जो जीवन भर सम्यग्दृष्टि रहे हैं पर अन्तमें मिथ्यादृष्टि हो गये हैं। अब यदि इन जीवोंके स्पर्शनका विचार किया जाता है तो वह लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है। और इनका क्षेत्र भी इतना ही है, अतः उक्त नरकोंमें जघन्य स्थितिके संक्रामकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान बतलाया है । अजवन्य स्थिति के संक्रामकोंमें जघन्य स्थिति के संक्रामकोंके सिवा शेष सब नारकियोंका समावेश हो जाता है। अतः इनका स्पर्शन अपने-अपने नरकके स्पर्शनके समान बतलाया है । तियचोंमें जघन्य स्थितिके संक्रामकोंका स्पर्शन लोकके संख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है, क्योंकि जघन्य स्थितिका संक्रम बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें ही सम्भव है। तथा अजघन्य स्थितिके संक्रामकोंमें एकेन्द्रिय मुख्य हैं और उनका स्पर्शन सब लोकप्रमाण है। इन दोनोंका क्षेत्र भी इतना ही है । अतः इनका स्पशन क्षेत्रके समान बतलाया है। पंचेन्द्रिय आदि तियेञ्चोंमें
और लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिका संक्रम उन्हींके सम्भव है जो एकेन्द्रिय पर्यायसे आकर यहाँ उत्पन्न हुए हैं। अब यदि इनके क्षेत्रका विचार किया जाता है तो वह लाकके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है, स्पर्शन में भी इससे विशेष अन्तर नहीं पड़ता, अतः इनका जघन्य स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया है। मनुष्यत्रिकमें मोहनीयकी जघन्य स्थिति के संक्रामक क्षपक सूक्ष्मसंपराय जीव होते हैं और उनका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है यह स्पष्ट ही है । इसीसे यहाँ तीन प्रकारके मनुष्योंमें भी जघन्य स्थितिके संक्रामकोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है यह बतलाया है । तथा इन सबमें अजघन्य स्थितिके संक्रामकोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक है यह स्पष्ट ही है । जो असंज्ञी जीव मर कर देवों में उत्पन्न होते हैं उन्हीं देवोंके जघन्य स्थितिका संक्रम सम्भव है। अब यदि इनके स्पर्शनका विचार किया जाता है तो वह लोकके असंख्यातवें भागसे अधिक नहीं प्राप्त होता। क्षेत्र भी इतना ही है । अतः देवोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिके संक्रामकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान बतलाया है । अजघन्य स्थितिके संक्रामकोंमें जघन्य स्थितिके संक्रामकोंके सिवा शेष सब देवोंका ग्रहण हो जाता है। और सामान्यसे देवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और बसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और कुछ कम नौ भागप्रमाण है। इसीसे यहाँ अजघन्य स्थितिके संक्रामकोंका स्पर्शन उक्तप्रमाण बतलाया है। सौधर्म और ऐशान कल्पमें यह स्पर्शन उक्त प्रकारसे बन जाता है अतः यहाँ इस स्पर्शनको उक्त प्रकारसे जाननेकी सूचना की है। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषियोंमें जो जघन्य स्थितिके संक्रामक जीव होते हैं उनका यदि स्पर्शन देखा जाता है तो वह लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है। क्षेत्र भी इतना ही है, अतः इनके स्पर्शनको क्षेत्रके समान कहा है । तथा इनमें अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकोंके समान बहुभाग राशि अजघन्य स्थितिकी संक्रामक है। इसलिये इनके स्पर्शनको एक समान कहा है। इसी प्रकार सनत्कुमारसे लेकर अच्युत कल्प तक जानना चाहिये । तथा इससे आगेके जघन्य और अजघन्य स्थितिके संक्रामक देवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है यह स्पष्ट ही है। इसी प्रकार विचार करके
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