Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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३०० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पंधगो६ माणयस्स पढमसमयदेवस्स वा । एवं मणुसतिए। णवरि पढमसमयदेवालावो ण कायव्वो।
६०७. कालाणु० दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण तिण्णिवड्डिचत्तारिहाणि-अवढि०संका० कालो विहत्तिभंगो। णवरि संखे०भागहाणि-अवत्त० जहण्णु० एयसमओ।
६६०८. सव्वणेर०-सव्वदेवेसु विहत्तिभंगो। तिरिक्खाणं च विहत्तिभंगो । पंचिं०तिरिक्ख०३ असंखे०भागवडि-संखेजगुणवड्डि० जह० एयसमओ, उक्क० वे समया । संखजभागवड्डि-हाणि-संखेजगुणहाणिसंका० जहण्णु० एयसमओ। असंखे०भागहाणिअवट्टि० तिरिक्खोघं । एवं पंचिंदियतिरिक्खअपज० । णवरि असंखे०भागहाणी० जह० एयसमओ, उक्क० अंतोमु० । एवं मणुसअपज्ज० । मणुस० पंचितिरिक्खभंगो। णवरि उपशामक जीव उपशमश्रेणिसे च्युत हो रहा है या जो उपशामक मर कर प्रथम समयवती देव है उसके अवक्तव्य पद होता है । इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि यहाँ प्रथम समयवर्ती देवके अवक्तव्य पद होता है यह आलाप नहीं करना चाहिये ।
६६०७. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । ओघकी अपेक्षा तीन वृद्धि, चार हानि और अवस्थितके संक्रामकोंका काल स्थितिविभक्तिके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि संख्यातभागहानि और अवक्तव्यका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है।
विशेषार्थ-इन सब वृद्धियों और हानियोंके काल स्थितिविभक्तिमें घटित करके बतला आये हैं उसी प्रकार प्रकृतमें घटित कर लेना चाहिये। किन्तु स्थितिविभक्तिमें स्थितिसत्त्वकी अपेक्षासे वह काल बतलाया है । यहाँ उसका कथन स्थितिसंक्रमकी अपेक्षासे करना चाहिये । तथापि वहाँ संख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल जो दो समय कम उत्कृष्ट संख्यातप्रमाण बतलाया है वह यहाँ नहीं प्राप्त होता, क्योंकि जिस स्थितिसत्त्वके सद्भावमें संख्यातभागहानिका यह उत्कृष्ट काल घटित किया गया है वहाँ संक्रम नहीं होता। इसलिये स्थितिसंक्रमकी अपेक्षा संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय प्रमाण ही प्राप्त होता है ऐसा जानना चाहिये । स्थितिसत्त्वके सिवा यहाँ स्थितिसंक्रममें एक पद और होता है जिसे प्रवक्तव्य पद कहते हैं। यह या तो उपशमश्रेणिसे च्युत होनेवाले क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवके एक समयके लिये होता है या जो उपशान्तमोह क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव मर कर देव होता है, उसके प्रथम समयमें होता है, अतः इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय बतलाया है।
६६०८. सब नारकी और सब देवोंमें स्थितिविभक्तिके समान काल है। तिर्यञ्चोंमें भी काल स्थितिविभक्ति के समान है। पंचेद्रिय तिर्यश्चत्रिकमें असंख्यात भागवृद्धि और संख्यात गुणवृद्धिके संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिके संक्रामकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। असंख्यात भागहानि और अवस्थितके संक्रामकका काल सामान्य तियचोंके समान है। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें असंख्यात भागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिये। मनुष्य त्रिकमें पंचेन्द्रिय तिर्यश्चके समान काल है। किन्तु इतनी
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