Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
View full book text
________________
wvvvv
गा० ५८ ] उत्तरपडिट्ठिदिसंकमे सामित्त
३११ * सामित्तं ।
६२८. एत्तो सामित्ताणुगमं कस्सामो त्ति पइजासुत्तमेदं सुगमं ।
* उक्कस्सहिदिसंकामयस्स सामित्तं जहा उक्कस्सियाए हिदीए उदीरणा तहा णेदव्वं ।
६२९. संपहि एत्थुक्कस्सद्विदिसंकमसामित्तं सुत्तसमप्पिदमुच्चारणाबलेण वत्तइस्सामो । तं जहा–सामित्तं दुविहं-जह० उक्क० च । उक्कस्से पयदं । दुविहो णि०
ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छत्त-सोलसक० उक्क०डिदिसं० कस्स ? अण्णदर० मिच्छाइडिस्स उकस्सहिदि बंधिदणावलियादीदस्त । एवं' णवणोकसाय० । णवरि कसायुक्कस्सद्विदि पडिच्छियूणावलियादीदस्स । सम्मत्त०-सम्मामि० उक्क डिदिसं० कस्स ?
विशेषार्थ-मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिसंक्रम कदाचित्क है। तथा जघन्य स्थितिसंक्रम क्षपणाके समय ही होता है, अतः इन प्रकृतियोंके ये तीनों स्थितिसंक्रम सादि और अध्रुव कहे हैं। किन्तु अजघन्य स्थितिसंक्रममें कुछ विशेषता है। बात यह है कि मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसंक्रम प्राप्त होनेके पूर्वतक अजघन्य स्थितिसंक्रम रहता है, इसलिये तो वह अनादि है । तथा भव्यकी अपेक्षा अध्रुव और अभव्यकी अपेक्षा ध्रुव है। अब रहे सोलह कषाय और नौ नोकषाय सो इनमें से अनन्तानुबन्धी विसंयोजना प्रकृति होनेके कारण इसके अजघन्य स्थितिसंक्रमके सादि आदि चारों विकल्प बन जाते हैं। इसी प्रकार शेष इक्कीस प्रकृतियोंका उपशमश्रेणिमें संक्रमका अभाव हो कर अजघन्य स्थितिसक्रम पुनः चालू होता है, अतः इनके अजघन्य स्थितिसंक्रमके भी सादि आदि चारों विकल्प बन जाते हैं। इस प्रकार मिथ्यात्व आदि २६ प्रकृतियोंका विचार हुआ। अब रही सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये दो प्रकृतियाँ सो ये प्रकृतियाँ ही जब कि सादि और सान्त हैं तब इनके उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम आदि चारों संक्रम सादि
और सान्त हैं ऐसा होनेमें कोई आपत्ति नहीं है। नरक गति आदि चारों गतियाँ प्रत्येक जीवकी अपेक्षा सादि और अध्रुव हैं, इसलिए इनमें सब प्रकृतियोंके सादि और अध्रुव ये दो भंग ही बनते हैं यह स्पष्ट ही है।
* अब स्वामित्वका अधिकार है।
६६२८. इससे आगे स्वामित्वानुगमका विचार करते हैं। इस प्रकार यह प्रतिज्ञा सूत्र है जो सुगम है।
* उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकका स्वामित्व उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणाके स्वामित्वके समान जानना चाहिए ।
६६२६. अब यहाँ जो सूत्रमें उत्कृष्ट स्थितिके संक्रमके स्वामित्वका संकेत किया है सो उसे उच्चारणाके बलसे बतलाते हैं। यथा-स्वामित्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। ओघसे मिथ्यात्व और सोलह कषायोंका उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम किसके होता है ? जिस मिथ्यादृष्टिको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किए एक आवलि हुआ है उसके होता है। इसी प्रकार नौ नोकषायोंका जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका संक्रम किये जिसे एक आवलिकाल हो
१. श्रा० प्रतौ सव्वं इति पाठः।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org