Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
अण्णद० जो पुत्रवेदगो सम्मत्त सम्मामि० संतकम्मिओ मिच्छत्तु कस्सट्ठिदि बंघियूणंतोमुहुत्तभिग्गो द्विदिधादमकाऊण सम्मत्तं पडिवण्णो तस्स विदियसमयसम्माइट्ठिस्स । एवं च गदीसु । णवरि पंचिदियतिरि० अपज० मणुसअपज० - आणदादि जाव सव्वट्टे त्तिट्ठिदिहित्तिभंगो | एवं जाव० ।
* जहण्णयमेयजीवेण सामित्तं कायव्वं ।
९६३०. सुगमं ।
* मिच्छत्तस्स जहणओ हिदिसंकमो कस्स ? $ ३३१. सुगमं ।
* मिच्छत्तं खवेमाणयस्स अपच्छिमट्ठिदिखंडयचरिमसमयसंकामयस्स तस्स जहण्यं ।
९ ६३२. मिच्छत्तं खवेमाणस्से त्ति विसेसणेण तदुवसामणादिवावारंतरेसु पट्टस्स सामित्ताभावो पदुष्पाइदो । अपच्छिमट्ठिदिखंडयवयणेण तदण्णट्ठिदिखंडय पडिसेहो कओ । चरिमसमयसंकामयविसेसणेण दुचरिमादिसमय संकामयस्स सामित्त संबंधो डिसिद्ध | सेसं सुगमं ।
गया है उसके यह नौ नोंकषायोंका उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम होता है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम किसके होता है ? जो जीव पूर्व में वेदक होकर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका सत्कर्मवाला है और इसके बाद जिसे मिध्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके वहाँसे निवृत्त हुए अन्तर्मुहूर्त काल हो गया है वह जीव स्थितिघात किये बिना यदि सम्यक्त्वको प्राप्त होता है तो उस सम्यग्दृष्टिके दूसरे समय में यह उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम होता है । इसी प्रकार चारों गतियोंमें जानना चाहिये | किन्तु इतनी विशेषता है कि पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त और आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धितक के देवोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके संक्रमका स्वामित्व स्थिति - विभक्तिके समान है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये ।
* अब एक जीवकी अपेक्षा जघन्य स्वामित्वका कथन करना चाहिये ।
६३०. यह सूत्र सुगम है ।
* मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसंक्रम किसके होता है ।
६ ६३१. यह सूत्र सुगम है ।
* जो मिथ्यात्वकी क्षपणा करनेवाला जीव अन्तिम स्थितिकाण्डकके अन्तिम समयमें उसका संक्रम कर रहा है उसके मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसंक्रम होता है ।
$ ६३२. जो जीव मिथ्यात्वके उपशामना आदि दूसरे व्यापारोंमें लगा है उसके प्रकृत स्वामित्व नहीं होता है यह बतलाने के लिए सूत्रमें 'मिच्छत्तं खवेमाणस्स' पद दिया है । अपच्छिमहिदिखंडय' वचन द्वारा इसके सिवा शेष स्थितिकाण्डकोंका प्रतिषेध किया है । तथा 'चरिमसमयसंकामय' इस विशेषण द्वारा जो जीव अन्तिम स्थितिकाण्डकके संक्रमके द्विचरम आदि समयों में विद्यमान है उसके स्वामित्वका निषेध किया है । शेष कथन सुगम है ।
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