Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 312
________________ गा० ५८ ] द्विदिकमे पदणिक्खेव वड्ढि परूवण २६६ ९६०३. जहण्णए पयदं । दुविहो णि० - ओवेण आदेसेण य । ओघेण मोह ० जह० वड्डी कस्स ? अण्णदरस्स जो समयूर्णाडिदिकमादो उक० डिदि संकामेदि तस्स जह० वड्डी । जह० हाणी कस्स ? अण्णद० जो उक्क० डिदि संकामेमाणो समयूकस्सट्ठिदि संका० जादो तस्स जहणिया हाणी । एयदरत्थ अवट्ठाणं । एवं चदुगदीसु । वरि आणदादि सव्वा त्ति जह० हाणी कस्स १ अण्णद० घट्ठिदि गालेमाणयस्स । एवं जाव० । ९ ६०४. अप्पा बहुअं विहत्तिभंगो । एवं पदणिक्खेव त्ति समत्तमणियोगद्दारं । ९६०५. वड्ढि संकामगे त्ति तत्थ इमाणि तेरस अणियोगद्दाराणि १३ – समुक्कित्तणा जाव अप्पा बहुए ति । समुत्तिणदाए दुविहो णिद्देसो- श्रघेण आदेसेण य । श्रघेण मोह ० अस्थि तिण्णिवड्डि- चत्तारिहाणि - अवट्ठि ० - अवत्तव्वसंकामया । एवं मणुस ०३ । सेसं विहत्तिभंगो | ६६०६. सामित्तं विहत्तिभंगो । णवरि अवत्त • अण्ण० उवसामगस्स' परिवद विशेषार्थ — जिसका बन्ध होता है उसका एक श्रावलि काल जानेके बाद ही संक्रम होता है और यह संक्रमका प्रकरण है । इसीसे श्रोघकी अपेक्षा वर्णन करते समय उत्कृष्ट वृद्धि उत्कृष्ट स्थितिबन्धके होने के बाद एक आवलि कालके बाद बतलाई है । अन्यत्र जहाँ बन्धके बाद एक काल बाद उत्कृष्ट वृद्धि बतलाई है वहाँ यही कारण जानना चाहिये । शेष कथन सुगम है । $ ६०३. जघन्यका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है - श्रघनिर्देश और प्रदेशनिर्देश । की अपेक्षा मोहनीयकी जघन्य वृद्धि किसके होती है ? जो एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिका कम करनेके बाद उत्कृष्ट स्थितिका संक्रम करता है उसके जघन्य वृद्धि होती है । जघन्य हानि किसके होती है ? उत्कृष्ट स्थितिका संक्रम करनेवाला जो जीव तदनन्तर एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिका संक्रम करता है उसके जघन्य हानि होती है । तथा किसी एक जगह जघन्य अवस्थान होता है । इसी प्रकार चारों गतियोंमें जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि नत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवोंमें जघन्य हानि किसके होती है ? अधः स्थितिको गलानेवाले किसी भी जीव होती है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये । ९६०४. अल्पबहुत्वका भंग स्थितिविभक्तिसे सम्बन्ध रखनेवाले पदनिक्षेपके अल्पबहुत्व के समान है । इस प्रकार पदनिक्षेप अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । ६६०५. वृद्धिसंक्रामक नामक अनुयोगद्वार में समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्वक तेरह अनुयोगद्वार होते हैं । समुत्कीर्तना की अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । की अपेक्षा मोहनीयकी तीन वृद्धि, चार हानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके संक्रामक जीव हैं । इसी प्रकार मनुष्यत्रिक में जानना चाहिये । शेष भंग स्थितिविभक्तिके समान है । $ ६०६. स्वामित्वका भंग स्थितिविभक्तिके समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि जो १. ता०प्रतौ उपसामगो [ गस्स ], श्र०प्रतौ उवसामगो इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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