Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 303
________________ २६० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ द्विदिसं० थोवा । अणु० ट्ठिदिसं० असंखे०गुणा। एवं सव्वणेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुस-मणुसअपज्ज०-देवा जाव अवराइदा ति । मणुसपज०-मणुसिणीसु सवढ०देवेसु एवं चेव । णवरि संखेजगुणं कायव्वं । एवं जाव० । ५८३. जह० पयदं। दुविहो जिद्द सो--श्रोघेण आदेसेण य। ओधादेसं सव्वमुक्कस्सभंगो । णवरि तिरिक्खा णारयभंगो। एवं मूलपयडिट्ठिदिसंकमे तेवीसमणिओगद्दाराणि समत्ताणि । ५८४. भुजगारसंकमे त्ति तत्थ इमाणि तेरस अणियोगद्दाराणि--समुक्कित्तणा जाब अप्पाबहुए ति । समुकित्तणाणु० दुविहो जिद्द सो ओघादेसभेदेण । ओघेण अत्थि मोह. भुजगार-अप्पदर-अवट्ठिद-अवत्तव्वहिदिसंकामया । एवं मणुसतिए । आदेसेण सव्वगइमग्गणाविसेसेसु द्विदिविहत्तिभंगो । एवं जाव० । तिर्यश्चोंमें जानना चाहिये । आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामक जीव थोड़े हैं । अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रामक जीव असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च, सामान्य मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और अपराजित तकके देवोंमें जानना चाहिये । मनुष्यपर्याप्त, मनुष्यनी और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें इसी प्रकार जानना चाहिये। किन्तु यहाँ संख्यातगुणा करना चाहिये । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिये। ६५८३. जघन्यका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । यहाँ ओघ और आदेश दोनोंका कथन उत्कृष्टके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चोंका भंग नारकियों के समान है । अर्थात् जघन्य स्थितिके संक्रामक तियेचोंसे अजघन्य स्थितिके संक्रामक तिर्यश्च असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार मूलप्रकृतिस्थितिसंक्रममें तेईस अनुयोगद्वार समाप्त हुए। ६५८४. भुजगारसंक्रमका प्रकरण है। उसमें समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व तक ये तेरह अनुयोगद्वार जानने चाहिये । समुत्कीर्तनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । ओघकी अपेक्षा मोहनीयकी भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिके संक्रामक जीव हैं। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिये। आदेशकी अपेक्षा गतिमार्गणाके सब भेदोंमें स्थितिविभक्तिके समान कथन जानना चाहिये। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये। विशेषार्थ--भुजगार अनुयोगद्वारमें भुजगार, अल्पवर, अवस्थित और अवक्तव्य इन चारोंका विचार किया जाता है। इसके अवान्तर अधिकार तेरह हैं। वे ये हैं-समुत्कीर्तना, स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल, अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व । सर्व प्रथम यहां समुत्कीर्तनाका विचार करते हैं। ओघसे भुजगारस्थितिके संक्रामक अल्पतरस्थितिके संक्रामक, अवस्थितस्थितिके संक्रामक और अवक्तव्यस्थितिके संक्रामक जीव हैं। जो कम स्थितिका संक्रम करके अनन्तर समयमें अधिक स्थितिका संक्रम करे उसे भुजगारस्थितिका संक्रामक कहते हैं। जो अधिक स्थितिका संक्रम करके १ ता० -श्रा०प्रत्योः -तिरिक्ख-मणुसअपज्ज० इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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