Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 305
________________ २६२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बंधगो ६ भुज०संकामओ केव० ? जह० एयसमओ, उक्क० चत्तारि समया । अप्पद० जह० एयस०, उक्क० तेवढिसागरोवमसदं सादिरेयतिवलिदोवमेहि सादिरेयं । अवट्टि० जह० एयस०, उक० अंतोमु० । अवत्तव्व० जहण्णुक० एयसमओ।। ६५८७. आदेसेण णेरइय० भुज० ज० एयसमओ, उक्क० तिण्णि समया । ओघकी अपेक्षा मोहनीयकी भुजगारस्थितिके संक्रामकका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल चार समय है। अल्पतरस्थितिके संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त और तीन पल्य अधिक एक सौ त्रेसठ सागर है। अवस्थित स्थितिके संक्रामकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। तथा अवक्तव्यका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। विशेषार्थ-किसी एक जीवने एक समय तक भुजगारस्थितिका संक्रम किया और दूसरे समयमें वह अल्पतर या अवस्थितस्थितिका संक्रम करने लगा तो भुजगार स्थितिसंक्रमका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है । तथा जब कोई एक एकेन्द्रिय जीव पहले समयमें अद्धाक्षयसे स्थितिको बढ़ा कर बाँधता है, दूसरे समयमें संक्लेशक्षयसे स्थितिको बढ़ा कर बाँधता है, तीसरे समयमें मरकर और एक विग्रहसे संज्ञियोंमें उत्पन्न होकर असंज्ञियोंके योग्य स्थितिको बढ़ाकर बाँधता है और चौथे समयमें शरीरको ग्रहण करके संज्ञीके योग्य स्थितिको बढ़ाकर दाँधता है तब उसके भुजगार स्थितिबन्धके चार समय पाये जानेके कारण प्रथम समयसे एक श्रावलिके बाद भुजगारस्थितिसंक्रमके भी चार समय पाये जाते हैं, इसलिये भुजगार स्थितिसंक्रमका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल चार समय बतलाया है। जो जीव एक समय तक अल्पतरस्थितिका संक्रम करके दूसरे समयमें भुजगार या अवस्थितस्थितिका संक्रम करने लगता है उसके अल्पतरस्थितिके संक्रमका जघन्य काल एक समय पाया जाता है ! तथा जिस जीवने अन्तर्मुहूर्त तक अल्पतर स्थितिका संक्रम किया। फिर वह तीन पल्यकी आयु लेकर भोगभमिमें उत्पन्न हुआ और वहाँ आयुमें अन्तर्मुहूर्त कालके शेष रहने पर उसने सम्यक्त्वको ग्रहण किया। फिर वह छयासठ सागर तक सम्यक्त्वके साथ परिभ्रमण करता रहा । पश्चात् अन्तर्मुहूर्त काल तक सम्यग्मिथ्यात्वमें रहा और अन्तर्मुहूर्तके बाद पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त करके दूसरी बार छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वके साथ परिभ्रमण करता रहा । पश्चात् मिथ्यात्वमें गया और इकतीस सागरकी आयुवाले देवोंमें उत्पन्न हो गया। फिर वहाँसे च्युत होकर और मनुष्यों में उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूर्त काल तक अल्पतर स्थितिका संक्रम किया। फिर वह भुजगारस्थितिका संक्रम करने लगा। इस प्रकार इस कालका योग अन्तर्मुहूर्त और तीन पल्य अधिक एक सौ बेसठ सागर होता है अतः प्रकृतमें अल्पतर स्थितिसंक्रमका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त और तीन पल्य अधिक एकसौ त्रेसठ सागरप्रमाण कहा है। एक स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त बतलाया है। स्थितिसंक्रम स्थितिबन्धका अविनाभावी होनेसे उसका भी इतना ही काल प्राप्त होता है। इसीसे यहाँ अवस्थितस्थितिसंक्रमका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त बंतलाया है । अवक्तव्य स्थितिसंक्रमका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है यह स्पष्ट ही है। ६५८७, आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें भुजगार स्थितिसंक्रमका जघन्य काल एक समय १. ता० -श्रा०प्रत्योः सादिरेयं तिवलिदोवमेहि इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only .. www.jainelibrary.org

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