Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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हिदिसंकमो अस्थाहियारो तस्स णिवेदिय परिसुद्धभावकुसुमंजलिं जिणिंदस्स ।
ठिदिसंकमाहियारं जहाद्विदं वण्णइस्सामो ॥ १॥
हिदिसंकमो दुविहो - मूलपयडिहिदिसंकमो उत्तरपयडिद्विदिसंकमो च।
४९५. एत्तो ट्ठिदिसंकमो पयडिसंकमाणंतरपरूवणाजोग्गो पत्तावसरो । सो च दुविहो मूलुत्तरपयडिट्ठिदिसंकमभेदेण । तत्थ मूलपयडीए मोहणीयसण्णिदाए जा द्विदी तिस्से संकमो मूलपयडिट्ठिदिसंकमो उच्चइ । एवमुत्तरपयडिट्ठिदिसंकमो च वत्तव्यो । एवं दुविहत्तमावण्णस्स ट्ठिदिसंकमस्स परूवणट्ठमुत्तरपदं भणइ
* तत्थ अट्टपदं-जा द्विदी अोकड्डिजदि वा उक्कड्डिजदि वा भएणपयडिं संकामिजइ वा सो हिदिसंकमो । सेसो द्विदिअसंकमो।
७ ४९६. एत्थ मूलपयडिट्ठिदीए ओकड्डुक्कड्डणवसेण संकमो। उत्तरपयडिद्विदीए पुण ओकड्डुक्कड्डण-परपयडिसंकंतीहि संकमो दट्टव्यो। एदेणोकड्डणादओ जिस्से द्विदीए
स्थितिसंक्रम अधिकार उस जिनेन्द्रको अतिनिर्मल भावरूपी कुसुमोंकी अंजलि अर्पण करके यथास्थित स्थितिसंक्रम अधिकारका वर्णन करूँगा ॥१॥
* स्थितिसंक्रम दो प्रकारका है-मूलप्रकृतिस्थितिसंक्रम और उत्तरप्रकृतिस्थितिसंक्रम।
६ ४६५. अब इस प्रकृतिसंक्रम अनुयोगद्वारके बाद स्थितिसंक्रमका कथन अवसर प्राप्त है। मूलप्रकृतिस्थितिसंक्रम और उत्तरप्रकृतिस्थितिसंक्रमके भेदसे वह दो प्रकारका है। उनमेंसे मोहनीय नामक मूल प्रकृतिकी जो स्थिति है उसके संक्रमको मूलप्रकृतिस्थितिसंक्रम कहते हैं। इसी प्रकार उत्तरप्रकृतिस्थितिसंक्रम कहना चाहिये । इस प्रकार दो तरहके स्थितिसंक्रमका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
स्थितिसंक्रमके विषयमें यह अर्थपद है-जो स्थिति अपकर्षित, उत्कर्षित और अन्य प्रकृतिरूपसे संक्रमित होती है वह स्थितिसंक्रम है और शेष स्थितिअसंक्रम है।
४६६. यहाँ पर मूलप्रकृतिकी स्थितिका अपकर्षण और उत्कर्षणके कारण संक्रम होता है। किन्तु उत्तरप्रकृतिस्थितिका अपकर्षण, उत्कर्षण और परप्रकृतिसंक्रमके कारण संक्रम जानना
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