Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० ५८ ] ट्ठिदिसंकमे उक्कडणा
२६१ काले उदयावलियबाहिरे अणंतरठिदि पावेहिदि त्ति तं पदेसग्गमुक्कड्डियूण समयाहियाए आवलियाए ऊणियाए अग्गहिदीए णिक्खिवदि । एस उक्कस्सो णिक्खेवो। ____५३८. जो सण्णिपंचिंदियपज्जत्तो सागार-जागारसव्वसंकिलेसेहि उक्कस्सदाहं गदो उक्कस्सद्विदि सत्तरिसागरोवमकोडाकोडिपमाणावच्छिण्णं बंधियूण बंधावलियमदिकंतो तमुक्कस्सियं द्विदिमोकड्डियूणुदयावलियबाहिरपढमहिदिणिसेयादो विसेसहीणं विदियट्ठिदीए णिसिंचिय तदणंतरसमए अणंतरवदिक्कतसमयपढमट्ठिदिमुदयावलियम्भंतरं पवेसिय विदियट्ठिदिं च पढमद्विदित्तेण परिद्वविय से काले तं च णिरुद्धद्विदि उदयावलियगभं पावेहिदि ति द्विदो तम्मि चेव समए तदणंतरसमयोकड्डिदपदेसग्गमुक्कड्डणावसेण तकालियणवकबंधपडिबङ्घकस्सहिदीए णिक्खिवमाणो पचग्गबंधपरमाणूणमभावेणुक्कस्साबाहमेत्तमइच्छाविय तमाबाहाबाहिरपढमणिसेयद्विदिमादि कादण ताव णिक्खिवदि जाव समयाहियावलिया परिहीणा अग्गद्विदी। तस्स तहा णिक्खिवमाणस्स उक्कस्सओ णिक्खेओ होइ । तस्स य पमाणं समयाहियावलियब्भहियाबाहापरिहीणउकस्सकम्मट्ठिदिमत्तं जायदि त्ति एसो सुत्तत्थसमासो। तदनन्तर समयमें उदयावलिके बाहर अनन्तरवर्ती स्थितिको प्राप्त होगा कि इस स्थितिके कर्मद्रव्यका उत्कर्षण करके उसका एक समय अधिक एक प्रावलिसे कम अग्रस्थितिमें निक्षेप करता है । यह उत्कृष्ट निक्षेप है । ___५३८. जिस संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवने साकार उपयोगसे उपयुक्त होकर जागृत अवस्थाके रहते हुए सर्वोत्कृष्ट संक्लेशके कारण उत्कृष्ट दाहको प्राप्त होकर सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया। फिर बन्धावलिके व्यतीत हो जानेपर उस उत्कृष्ट स्थितिका अपकर्षण करके उसे उदयावलिके बारकी प्रथम स्थितिके निषेकसे विशेष हीन दूसरी स्थिति में निक्षिप्त किया। फिर तदनन्तर समयमें अनन्तर पूर्व समयवर्ती स्थितिका उदयावलिके भीतर प्रवेश कराके और उस दूसरी स्थितिको प्रथम स्थितिरूपसे स्थापित करके तदनन्तर समयमें विवक्षित स्थितिको उदयावलिके भीतर प्राप्त कराता, इस प्रकार स्थित होकर उसी समयमें इससे पूर्व समयमें अपकर्षणको प्राप्त हुए प्रदेशाप्रका उत्कर्षणके वशसे उसी समय हुए नवीन बन्धसे सम्बन्ध रखनेवाली उत्कृष्ट स्थितिमें निक्षेप किया। यहाँ इस निक्षेपको, आबाधामें नवीन बन्धके परमाणुओंका अभाव होनेसे उत्कृष्ट आवाधाको अतिस्थापनारूपसे स्थापित करके आबाध के बाहर प्रथम निषेककी स्थितिसे लेकर एक समय अधिक एक प्रावलिसे न्यून अग्रस्थितिके प्राप्त होने तक करता है। इस तरह जो जीव इस प्रकारका निक्षेप करता है उसके उत्कृष्ट निक्षेप होता है। इस निक्षेपका प्रमाण समयाधिक श्रावलि और आबाधासे हीन उत्कृष्ट कर्मस्थितिप्रमाण उत्पन्न होता है। इस प्रकार यह सूत्रका तात्पर्य है।
विशेषार्थ-स्थितिसंक्रम तीन प्रकारसे होता है। उनमें दूसरा प्रकार स्थितिउत्कर्षण है। सत्कर्मकी स्थितिके बढ़ानेको स्थिति उत्कर्षण कहते हैं। यह भी व्याघात और अव्याघातके भेदसे दो प्रकारका है। जहाँ सत्कर्मसे नवीन स्थितिबन्ध एक आवलि और एक आवलिके असंख्यातवें
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