Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० ५८ ]
कारण जीवेहि भगोविच
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५५९. णाणाजीवेहि भंगविचओ दुत्रिहो जहण्णु० डिदिसं० विसयभेदेण । एत्थुकस्से पयदं । तत्थङ्कपदं - जे उक्कस्सियाए द्विदीए संकामगा ते अणुक्कस्सियाए दिए असंकामगा इच्चादि । एदेणट्टपदेण दुविहो णिदेसो- ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह ० उक० द्विदीए सिया सव्वे असंकामगा । सिया एदे च संकामओ च १ । सिया एदे च संकामया च २ । ध्रुवसहिदा ३ भंगा । अणुक्क० संकामयाणं पि एवं चेव । वरि विवरीयं कायव्वं । एवं चदुसु गदीसु । णवरि मणुसअपञ्ज० उक्क० अणुक्क० अभंगा । एवं जाव०
६५५६. नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचयके दो भेद हैं- - जघन्य स्थितिसंक्रमविषयक और उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमविषयक । यहाँ उत्कृष्टका प्रकरण है । इस विषय में यह अर्थपद है--जो उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामक होते हैं वे अनुत्कृष्ट स्थिति के संक्रामक होते हैं आदि । इस अर्थपदके अनुसार निर्देश दो प्रकारका है -- ओघ और आदेश । घकी अपेक्षा मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिके कदाचित् सब जीव असंक्रामक होते हैं । कदाचित् मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिके बहुत जीव असंक्रामक होते हैं और एक जी संक्रामक होता है १ । कदाचित् मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिके बहुत जीव असंक्रामक होते हैं और बहुत जीव संक्रामक होते हैं २ । इस प्रकार ध्रुवसहित तीन भंग होते हैं ३ । अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकों के भी इसी प्रकार तीन भंग होते हैं । किन्तु इतनी विशेषता है कि यहाँ विपरीतरूप से कथन करना चाहिये । इसी प्रकार चारों गतियोंमें जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि मनुष्य पर्यातकोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिसंक्रमवालों की अपेक्षा आठ भंग होते हैं । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये ।
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विशेषार्थ - नियम यह है कि जो उत्कृष्ट स्थिति के संक्रामक होते हैं वे अनुत्कृष्ट स्थिति के संक्रामक नहीं होते और जो अनुत्कृष्ट स्थिति के संक्रामक होते हैं वे उत्कृष्ट स्थिति के संक्रामक नहीं होते। इस हिसाब से यद्यपि उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकोंसे अनुत्कृष्ट स्थितिके असंक्रामक और अनुत्कृष्ट स्थिति के संक्रामकोंसे उत्कृष्ट स्थितिके असंक्रामक जीव जुदे नहीं ठहरते । तथापि एक बार उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकोंको और दूसरी बार अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकोंको मुख्य करके भंगों का संग्रह करने पर तीन-तीन भंग प्राप्त होते हैं । जो मूलमें गिनाये ही हैं। बात यह है कि उत्कृष्ट स्थितिका संक्रामक जीव कदाचित् एक भी नहीं रहता, कदाचित् एक होता है और कदाचित् अनेक होते हैं । इन तीन विकल्पोंको मुख्य करके भंग कहने पर वे इस प्रकारसे प्राप्त होते हैं(१) कदाचित् सब जीव मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिके असंक्रामक होते हैं । (२) कदाचित् बहुत जीव मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिके असंक्रामक और एक जीव संक्रामक होता है । (३) कदाचित् बहुत जीव मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति के असंक्रामक और बहुत जीव संक्रामक होते हैं । ये तो उत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकों और असंक्रामकोंकी अपेक्षासे भंग हुए। और जब अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रामकों और संक्रामकको प्रमुख कर दिया जाता है तब इनकी अपेक्षासे ये तीन भंग प्राप्त होते हैं(१) कदाचित् सब जीव मोहनीयकी अनुत्कृष्ट स्थितिके संक्रामक होते हैं । (२) कदाचित् बहुत जीव मोहनीयकी अनुत्कृष्ट स्थिति के संक्रामक होते हैं और एक जीव असंक्रामक होता है । (३) कदाचित् बहुत जीव मोहनीयकी अनुत्कृष्ट स्थिति के संक्रामक होते हैं और बहुत जीव असंक्रामक होते हैं । इसी प्रकार चारों गतियों में ये तीन तीन भंग होते हैं । किन्तु लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य यह सान्तर मार्गणा है, इसलिए इसमें प्रत्येककी अपेक्षा आठ आठ भंग होते हैं । यथा - (१) कदाचित् एक जीव मोहनीयको उत्कृष्ट स्थितिका संक्रामक होता है । (२) कदाचित् नाना वजी
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