Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 267
________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [ बंधगो ६ उक्कड्डिजमाणाए आवलियमेत्ती अइच्छावणा होइ । संपहि एदस्सेवत्थस्स णिण्णयकरण?मुदाहरणं वत्तइस्सामो। तत्थ ताव पुव्वणिरुद्धद्विदी णाम सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीणं बंधपाओग्गा अंतोकोडाकोडीमेत्तदाहट्ठिदी घेत्तव्वा । तिस्से उवरि समयुत्तर-दुसमयुत्तरादिकमेण बंधमाणस्स जाव आवलिया अण्णेगो च आवलियाए असंखे०भागो ण गदो ताव तिस्से द्विदीए चरिमणिसेयस्स पयदुक्कड्डणा ण संभवइ, वाघादविसए णिव्वाघादपरूवणाए अणवयारादो । तम्हा आवलियाइच्छावणाए तदसंखेजभागमेत्तजहण्णणिक्खेवे च पडिवुण्णे संते णिव्याघादेगुकड्डणा पारभइ । एत्तो उवरि अवद्विदाइच्छावणाए णिरंतरं णिक्खेववुड्ढी वत्तव्वा जावप्पणो उक्कस्सणिक्खेवो त्ति । एवं कदे दाहट्ठिदीए णिव्वाधादजहण्णाइच्छावणसमयूणजहण्णणिक्खेवेहि य ऊणसत्तरिसागरोवमकोडाकोडिमेत्ताणि णिक्खेवडाणाणि' दाहद्विदिचरिमणिसेयस्स लद्धाणि भवंति । एवमेवदाहहिदि दुचरिमणिसेयस्स वि वत्तव्वं । गवरि अणंतरादीदणिक्खेवट्ठाणेहिंतो एत्थतणणिक्खेवट्ठाणाणि समयुत्तराणि होति । एवं सेसासेसहेट्ठिमहिदीणं पादेकं णिरंभणं काऊण समयाहियकमेण णिक्खेवट्ठाणाणमुप्पत्ती वत्तव्या जाव सव्वमंतोकोडाकोडिमोयरिय आवाहानंतरे समयाहियावलियमेत्तामोदरिदूर्ण द्विदद्विदि ति । एदिस्से हिदीए णिवाघादजहण्णा ___ उक्त सूत्रका यह भाव है कि जो स्थितियाँ बँधती हैं उनमें बंधी हुई स्थितियोंका उत्कर्षण होता है और उत्कर्षणको प्राप्त हुई उस स्थितिकी एक आवलिप्रमाण अतिस्थापना होती है। अब इसी अर्थका निर्णय करनेके लिये उदाहरण बतलाते हैं-प्रकृतमें पूर्व में बंधी हुई स्थितिसे सत्तर गरके बन्ध योग्य अन्तःकोडाकोडी प्रमाण दाहस्थिति लेनी चाहिए। इस स्थितिके ऊपर बन करनेवाले जीवके एक समय अधिक और दो समय अधिक आदिके क्रमसे जब तक एक आवलि और एक आवलिका असंख्तवाँ भाग नहीं बँध लेता है तब तक उस स्थितिके अन्तिम निषेकका प्रकृत उत्कर्षण सम्भव नहीं है, क्योंकि व्याघातविषयक प्ररूपणामें निर्व्याघात विषयक प्ररूपणा नहीं हो सकती। इसलिये एक आवलिप्रमाण अतिस्थापना और उसके असंख्यातवें भागप्रमाण जघन्य निक्षेपके परिपूर्ण हो जाने पर ही निर्व्याघातविषयक उत्कर्षणका प्रारम्भ होता है । इससे आगे अतिस्थापनाके अवस्थित रहते हुए अपने उत्कृष्ट निक्षेपकी प्राप्ति होने तक निरन्तर क्रमसे निक्षेपकी वृद्धिका कथन करना चाहिये। ऐसा करने पर दाहस्थितिके अन्तिम निषेकके; दाहस्थिति, निर्व्याघातविषयक जघन्य अतिस्थापना और एक समय कम जघन्य निक्षेप इन तीन राशियोंमे न्यून सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण निक्षेपस्थान प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार दाहस्थितिके द्विचरम निषेकका भी कथन करना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि समनन्तरपूर्व कहे गये निक्षेपस्थानोंसे इस स्थानके निक्षेपस्थान एक समय अधिक होते हैं। इसी प्रकार बाकीकी नीचेकी सब स्थितियोंकी प्रत्येक स्थितिको विवक्षित करके अन्तःकोडाकोडीप्रमाण स्थान नीचे जाकर आबाधाके भीतर एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण स्थिति नीचे जाकर जो स्थिति स्थित है उसके प्राप्त होने तक एक समय अधिकके क्रमसे निक्षेपस्थानोंकी उत्पत्ति कहनी १. श्रा०प्रतौ -मेत्ता णिक्खेवट्ठाणाणि इति पाठः । २. ता०-आप्रत्योः एवमेवेच्छाहद्विदीइति पाठः। ३. ता०प्रतौ -मेत्ता (त्त ) मोदरिदूण इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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