Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० ५८ ] पयडिसकमट्टाणाणं णाणाजीवेहि अंतर
२१९ ४३२. वावीसाए ताव जहण्णेणेयसमओ, उक्क० छम्मासमेत्तमंतरं होइ, दसणमोहक्खवणपट्टवणाए णाणाजीवावेक्खजहण्णुक्कस्संतराणं तेत्तियमेत्तपरिमाणाणमवलंभादो । एवं तेरसादीणं पि वत्तव्वं, खवयसेढीए लद्धसरूवाणमेदेसिं णाणाजीवावेक्खाए जहण्णुकस्संतराणं तप्पमाणाणमुवलद्धीदो । एत्थ चोदओ भणइ–णेदं धडदे, एकारसण्हं चउण्हं च सादिरेयवस्समेत्तुक्कस्संतरदसणादो । तं जहा-एकारसण्हं ताव पुरिसवेदोदएण खवयसेढिमारूढस्स आणुपुव्वीसंकमाणंतरं णqसयवेदक्खवणाए परिणदस्स णाणाजीवसमूहस्स एकारससंकमो होइ । पुणो इत्थिवेदक्खवणाए अंतरिय छम्मासमंतरमणुपालिय तदवसाणे णसयवेदोदए सेढिमारूढस्स गर्बुसय-इत्थिवेदा अक्कमेण खीयंति त्ति एकारससंकमाणुप्पत्तीए दसण्हं संकमो समुप्पञ्जइ । तदो एत्थ वि छम्मासमंतरं लब्भइ । पुणो इथिवेदोदएण चढिदस्स गqसयवेदे खीणे पच्छा अंतोमुहुत्तेणित्थिवेदो खीयदि त्ति तत्थेकारससंकमस्स लद्धमंतरं होइ । तदो एकारससंकामयस्स वासं सादिरेयमुक्कस्संतरं लब्भइ । पुरिसवेदोदएण खवगसेटिं चढिदस्स छण्णोकसायक्खवणाणंतरं चउण्हं संकामयस्सादि कादण तदो पुरिसवेदं खविय छम्मासमंतरिय इत्थिवेदोदएण चढिदस्स सत्तणोकसाया जुगवं परिक्खीयंति चदुण्णमणुप्पत्तीए पुणो वि छम्मासमेत्तमंतरं
६४३२. ब ईस प्रकृतिक संक्रमस्थानका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छः महीना है, क्योंकि दर्शनमोहनीयकी क्षपणाकी प्रस्थापनामें नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर उक्त प्रमाण पाया जाता है। इसी प्रकार तेरह प्रकृतिक आदि संक्रमस्थानोंका भी अन्तरकाल कहना चाहिए, क्योंकि क्षपकश्रेणिमें प्राप्त हुए इन स्थानोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर तत्प्रमाण उपलब्ध होता है।
शंका-यहाँ पर शंकाकार कहता है कि यह कथन नहीं बनता, क्योंकि ग्यारह और चार प्रकृतिक स्थानों का साधिक एक वर्षप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर देखा जाता है। यथा-पुरुषवेदके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए तथा आनुपूर्वी संक्रमके बाद नपुंसकवेदकी क्षपणा करनेवाले नाना जीवसमूहके ग्यारह प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है। पुनः स्त्रीवेदकी क्षपणाका अन्तर देकर और छः माह तक अन्तरका पालनकर उसके अन्तमें नपुंसकवेदके उदयसे श्रेणिपर चढ़े हुए जीवके स्त्रीवेद
और नपुंसकवेदका युगपत् क्षय होता है, इसलिए ग्यारह प्रकृतिक संक्रमस्थानकी उत्पत्ति न होकर दस प्रकृतिक संक्रमस्थान उत्पन्न होता है। इसलिये यहाँ पर भी छह माहप्रमाण अन्तर पाया जाता है । फिर स्त्रीवेदके उदयसे क्षपकश्रेणि पर चढ़े हुए नाना जीवोंके नपुसकवेदका क्षय हो जानेपर अन्तर्मुहूर्त के बाद स्त्रीवेदका क्षय होता है, इसलिये यहाँ पर ग्यारह प्रकृतिक संक्रमस्थानका अन्तर प्राप्त हो जाता है । अतः ग्यारह प्रकृतिक संक्रमस्थानका उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक वर्ष प्राप्त होता है। तथा जो नाना जीव पुरुषवेदके उदयसे क्षपकश्रेणि पर चढ़े हैं उनके छह नोकषायोंका क्षय होने पर चार प्रकृतिक संक्रमस्थानका प्रारम्भ होता है। फिर पुरुषवेदका क्षय करके और छह माहका अन्तर प्राप्त करके स्त्रीवेदके उदयसे क्षपकश्रेणि पर चढ़ने पर सात नोकषायोंका एक साथ क्षय होता है । यहाँ पर चार प्रकृतिक संक्रमस्थानकी उत्पत्ति नहीं होनेसे फिर भी छह माहप्रमाण अन्तर
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