Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[पंधगो ६ परूविदट्ठाणेसु वावीसाए बहिब्भावदंसणादो। कुदो वुण तत्थ तब्बहिब्भावो ? ण, सुहत्तिलेस्साविसयस्स तस्स तदण्णत्थ उत्तिविरोहादो। एवं णीललेस्साए किण्हलेस्साए च वत्तव्वं, विसेसाभावादो । एवं लेस्सामग्गणाए संकमट्ठाणाणुगमो समत्तो ॥१८॥
६३०४. 'अवगयवेद-णQसय०' एसा गाहा वेदमग्गणाए संकमट्ठाणमियत्तापरूवणट्ठमागया। एत्थ अट्ठारसादीणमवगदवेदादीहि जहासंखमहिसंबंधो कायव्वो। कुदो एदं णव्वदे ? 'आणुपुवीए' इदि सुत्तवयणादो। तत्थावगदवेदजीवम्मि अट्ठारससंकमट्ठाणाणि संभवंति, सत्तावीसादीणं पंचण्हं एत्थ सुण्णट्ठाणत्तोवएसादो-२७, २६, २५, २३, २२ । तदो एदाणि मोत्तूण सेसाणमवगदवेदमग्गणाए संभवो ति तेसिमिमो णिद्देसो कीरदे-चउवीससंतकम्मिओवसामगो पुरिसवेदोदएण सेढिमारूढो अणियट्टिट्ठाणम्मि लोभस्सासंकमगों' होऊण कमेण णउंस-इथिवेद-छण्णोकसायाणमुववतला आये हैं उनमें से बाईस प्रकृतिक संक्रमस्थान कापोत लेश्यामें नहीं पाया जाता।
शंका-बाईस प्रकृतिक संक्रमस्थान कापोत लेश्यामें क्यों नहीं पाया जाता ?
समाधान नहीं क्योंकि बाईसप्रकृतिक संक्रमस्थान तीन शुभ लेश्याओंके सद्भावमें ही होता है, इसलिये उसकी अन्य लेश्याओंके रहते हुए प्रवृत्ति माननेमें विरोध आता है ।
इसी प्रकार नीललेश्या और कृष्णलेश्यामें भी उक्त पांच संक्रमस्थान होते हैं ऐसा कथन करना चाहिये, क्योंकि कापोतलेश्यासे इन दोनों लेश्याओंमें एतद्विषयक कोई विशेषता नहीं है ।
विशेषार्थ-शक्ललेश्या प्रारम्भके ग्यारह गुणस्थानोंमें ही सम्भव है, इसलिये इसमें सब संक्रमस्थान बतलाये हैं। पद्मलेश्या और पीतलेश्या प्रारम्भके सात गुणस्थानों तक ही सम्भव हैं किन्तु इन सात गुणस्थानोंमें २७,२६,२५,२३,२२ और २१ ये छह संक्रमस्थान हो सम्भव है, इसलिये इन लेश्याओंमें ये छह संक्रमस्थान बतलाये है। अब रहीं तीन अशुभ लेश्याएं सो एक तो वे प्रारम्भके चार गुणस्थानों तक ही पाई जाती हैं और दूसरे इनके सद्भावमें दर्शनमोहनीयकी क्षपणा सम्भव नहीं है, इसलिये इन तीन लेश्याओंमें २२ प्रकृतिक संक्रमस्थानके सिवा २७.२६,२५, २३ और २१ ये पाँच संक्रमस्थान बतलाये हैं।
इस प्रकार लेश्यामार्गणामें संक्रमस्थानोंका विचार समाप्त हुआ ॥१८॥ ६३०४. 'अवगयवेद-णवुसय' यह गाथा वेदमार्गणामें संक्रमस्थानोंके परिमाणका कथन करनेके लिये आई है। यहाँ पर अठारह आदि पदोंका अवगदवेद आदि पदोंके साथ क्रमसे सम्बन्ध करना चाहिये।
शंका-यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान--सूत्रमें आये हुए 'श्रानुपूर्वी' इस वचनसे जाना जाता है। उनमेंसे अपगतवेदी जीवके अठारह संक्रमस्थान सम्भव हैं, क्योंकि यहाँ सत्ताईस आदि पाँच स्थान नहीं होते ऐसा आगमका उपदेश है । वे पाँच शून्यस्थान ये हैं-२७,२६,२५,२३ और २२ । यतः इन पाँच संक्रमस्थानोंके सिवा शेष सब संक्रमस्थान अपगतवेदमार्गणामें सम्भव हैं अतः यहाँ उनका निर्देश करते हैं-जो चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला उपशामक जीव पुरुषवेदके उदयसे श्रेणि पर चढ़ता है वह अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें पहुंचकर पहले लोभसंज्वलनके संक्रमका प्रभाव करता है फिर
१. ता०प्रतौ संकमणं ( गो) श्रा०प्रतौ संकमगो इति पाठः।
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