Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
View full book text
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६ एवं चउवीससंतकम्मम्मि णिरुद्धे तेरससंकमट्ठाणाणि लब्भंति । णवरि ओदरमाणमस्सियूण लब्भमाणाणि हाणाणि एत्थेव पुणरुत्तभावेण पविठ्ठाणि। चउवीससंतकम्मियसम्मामिच्छाइटिस्स इगिवीससंकमट्ठाणं दंसणमोहक्खवगस्स मिच्छत्तचरिमफालिपदणाणंतरमुवलब्भमाणवावीसट्ठाणं च पुणरुत्तमेवे ति ण पुध परूविदाणि ।
$ ३२४. संपहि चउवीससंतकम्मिएण दंसणमोहक्खवणमब्भुट्ठिय मिच्छत्ते खविदे तेवीससंतकम्मं होऊण वावीससंकमो होइ १ । तेणेव सम्मामिच्छत्तं खतेण समयूणावलियमेत्तगोवुच्छावसेसे कए तेणेव संतकम्मेण सहिदइगिवीससंकमट्ठाणमुप्पञ्जइ २। एवं तेवीसाए दोण्णि चेव संकमट्ठाणाणि भवंति ।
३२५. तस्सेव णिस्सेसिदसम्मामिच्छत्तस्स वावीससंतकम्मसहगयमिगिवीससंकमट्ठाणमेक्कं चेव लब्भदे, तत्थण्णसंभवाणुवलंभादो ।
३२६. खइयसम्माइट्ठिम्मि इगिवीससंतकम्ममिगिरीससंकमट्ठाणाणुविद्धमुप्पजदि १ । पुणो इगिवीससंतकम्मिएण उवसमसेढिमारुहिय आणुपुव्वीसंकमे कदे वीससंकमट्ठाणमेकवीससंतकम्माहारमुप्पज दि २ । उवरि जाणिऊण णेदव्वं । एवं णीदे एकवीसाए बारससंकमट्ठाणाणि लब्भंति १२, णवूस-इत्थिवेद-छण्णोकसाय-पुरिसवेद
इन दो प्रकृतियोंका ही संक्रम होता है १३ । इस प्रकार चौबीस प्रकृतिक सत्कर्मके सद्भावमें तेरह संक्रमस्थान उपलब्ध होते हैं। यहां इतना विशेष और समझना चाहिए कि उपशमश्रेणिसे उतरनेवाले जीवका आश्रय लेकर प्राप्त होनेवाले संक्रमस्थान पुनरुक्त होनेके कारण उनका इन्हीं में अन्तर्भाव हो गया है। तथा चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवके प्राप्त हुआ इक्कीस प्रकृतिक संक्रमस्थान और दर्शनमोहकी क्षपणा करनेवाले जीवके मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिके पतनके बाद प्राप्त हुआ बाईस प्रकृतिक संक्रमस्थान पुनरुक्त ही हैं इस लिये वे अलगसे नहीं कहे हैं।
६३२४. अब जो चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जीव दर्शनमोहकी क्षपणा करनेके लिये उद्यत होता है उसके मिथ्यात्वका क्षय हो जाने पर तेईस प्रकृतिक सत्कर्मके साथ बाईस प्रकृतिक संक्रमस्थान प्राप्त होता है १ । सम्यग्मिथ्यात्वका क्षय करते हुए उसी जीवके उसकी एक समय कम एक आवलिप्रमाण गोपुच्छा कर देने पर उसी तेईस प्रकृतिक सत्कर्मके साथ इक्कीस प्रकृतिक संक्रमस्थान उत्पन्न होता है २ । इस प्रकार तेईस प्रकृतिक सत्कर्मके सद्भावमें दो ही संक्रमस्थान होते हैं।
६३२५. फिर वही जीव जब सम्यग्मिथ्यात्वका क्षय कर देता है तब उसके बाईस प्रकृतिक सत्कर्मके साथ केवल एक इक्कीस प्रकृतिक संक्रमस्थान प्राप्त होता है, क्योंकि यहां पर अन्य संक्र- स्थान नहीं उपलब्ध होता है।
३२६. क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवके इक्कीस प्रकृतिक संक्रमस्थानसे सम्बन्ध रखनेवाला इक्कीस प्रकृतिक सत्कर्मस्थान उत्पन्न होता है। फिर इक्कीस प्रकृतिक सत्कर्मवाले जीवके उपशम. श्रेणिपर चढ कर पानपर्वी संक्रमका प्रारम्भ कर देने पर बीसप्रकृतिक संक्रमस्थानका आधारभत इक्कीस प्रकृतिक सत्कर्मस्थान उत्पन्न होता है २। आगे जान कर कथन करना चाहिये । इस प्रकार कथन करने पर इक्कीस प्रकृतिक सत्कर्मस्थानके बारह संक्रमस्थान प्राप्त होते हैं १२, क्योंकि
Jain Education International
For.Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.