Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० ५८ ] पयडिसंकमट्ठाणाण भागाभागो
२१३ णवगेवजा ति । विदियादि जाव सत्तमा ति एवं चेव । णवरि इगिवीससंकामया भयणिज्जा । भंगा ३ । एकाजोणिणि०-भवण०-वाण-जोदिसिएसु । पंचिंदियतिरिक्खअपज० तिण्णि हाणाणि णियमा अस्थि । मणुसतिये ओधभंगो। मणुसअपज० सवपदसंकामया भयणिज्जा । तत्थ भंगा २६ । अणुदिसादि जाव सव्वट्ठा त्ति २७, २३, २१ संकामया णियमा अस्थि । एवं जाव।।
$ ४१७. एत्थ ताव भागाभाग-परिमाण-खेत्त-फोसणाणं देसामासयसुत्तेणेदेण सूचिदाणमुच्चारणाणुगमं कस्सामो । तं जहा-भागाभाग० दुविहो णिदेसो-ओघेण आदेसेण य'। ओघेण पणुवीससंकामया सव्वजीवाणमणता भागा। सेससव्वपदसंकामया अणंतिमभागो। एवं तिरिक्खेसु । आदेसेण णेरइय० २५ संका० असंखेजा भागा । सेसमसंखे०भागो । एवं सव्वणेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुस-मणुसअपञ्ज-देवा जाव सहस्सार त्ति । मणुसपज्ज०-मणुसिणी० २५ पय० संका० संखेजा भागा । सेसं० सातवीं पृथिवी तक भी इसी प्रकार जानना चाहिये। किन्तु यहाँ इक्कीस प्रकृतियोंके जीव भजनीय हैं, अतः ध्रुव भंगके साथ तीन भंग होते हैं। इसी प्रकार योनिनीतियंच, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें जानना चाहिये। पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंमें तं न स्थानवाले जीव नियमसे हैं। मनुष्यत्रिकमें ओघके समान भंग हैं। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब सम्भव पदोंके संक्रामक जीव भजनीय हैं। यहाँ भंग २६ होते हैं। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक देवोंमें २७, २३ और २१ प्रकृतिक संक्रमस्थ नबाले जीव नियमसे हैं। इसी प्रकार अनाहारक मागेणातक जानना चाहिये।
विशेषार्थ-दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकी, योनिनी तिथंच, भवनवासी. व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें २१ प्रकृतिक संक्रमस्थानके एक और नाना जीवोंकी अपेक्षा दो भंग होते हैं तथा इनमें शेष स्थानोंकी अपेक्षा एक ध्रुव भंग मिला देनेपर तीन भंग हो जाते हैं। लब्ध्यपर्याप्त मनुष्योंमें २७, २६ और २५ ये तीन संक्रमस्थान होते हैं जो कि भजनीय हैं, अतः इनके २६ भंग प्राप्त होते हैं । शेष कथन सुगम है। तीन स्थानोंके ध्रुवभंगको छोड़कर शेष २६ भंग किस प्रकार आते हैं इसका ज्ञान पूर्वमें कही गई संदृष्टिसे ही हो जाता है।
६४१७. यतः 'णाणाजीवेहि भंगविचओ' यह सूत्र देशामर्षक है, अतः इससे सूचित होनेवाले भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र और स्पर्शन इन अनुयोगद्वारोंकी उच्चारणाका अनुगम करते हैं। यथा-भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा पच्चीस प्रकृतियोंके संक्रामक जीव सब जीवोंके अनन्त बहुभागप्रमाण हैं
और शेष सब पदोंके संक्रामक जीव अनन्तवें भागप्रमाण हैं। इसी प्रकार तियचों में भागाभाग जानना चाहिये। आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें २५ प्रकृतियोंके संक्रामक जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। तथा शेष पदोंके संक्रामक जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पंचेन्द्रिय तियंच, मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, देव और सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंमें भागाभाग जानना चाहिये । मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें २५ प्रकृतियोंके संक्रामक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। तथा शेष पदोंके संक्रामक जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं। आनत
१. ता०प्रतौ अोघादेसभेदेण इति पाठः । अग्रेऽपि बाहुल्येन ता०प्रतौ एवमेव पाठः । २. श्रा०प्रतौ तिरिक्खमणुसअपज० इति पाठः।
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