Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ३ ओघादेसेहि तप्परूवणाए चेव णिबद्धाणमदीदसवगाहाणमुवलंभादो।
६३४५. संपहि जत्थतत्थाणुपुबीए सेसाणमणियोगद्दाराणं णामणिद्देसकरण?मुवरिमगाहासुत्ताणं दोण्हमवयारो'-'सादिय जहण्ण संकम०' एत्थ सादि-जहण्णग्गहणेण सादि-अणादि-धुव-अर्धव-सब-णोसव्व-उकस्साणुकस्स-जहण्णाजहण्णसंकमसण्णिदाणमणियोगद्दाराणं संगहो काययो,देसामासयभावेणेदस्सवट्ठाणादो। संकमग्गहणमेदेसिमणियोगद्दाराणं पयडिट्ठाणसंकमविसयत्तं सूचेदि । 'कदिखुत्तो०' एवं उत्ते एक्के कमि संकमट्ठाणम्मि कदिगुणो जीवरासी होइ ति पुच्छिदं हवइ । एदेणप्पाबहुआणिओगद्दारं सूचिदं । 'अविरहिद'ग्गहणेण एयजीवेण कालो, 'सांतर'ग्गहणेण वि एयजीवेणंतरं सूचिदं, 'केवचिरं' गहणेण दोण्हं पि विसेसणादो। 'कदिभाग परिमाणं' इच्चेदेण भागाभागस्स संगहो कायव्यो, सव्वजीवरासिस्स कइत्थओ भागो केसिं संकमाणाणं संकामयजीवरासिपमाणं होइ त्ति पुच्छाए अवलंबणादो ॥३१॥
$ ३४६. 'एवं दव्वे खेते.' अत्र 'एवं' इत्यनेन नानाजीवसंबंधिनो भंगविचयस्य प्रतिग्रहस्थानों और तदुभयस्थानोंके कथनसे सम्बन्ध रखता है, क्योंकि ओघ और आदेशसे इसके कथन करनेमें ही अतीत सब गाथाओंका व्यापार देखा जाता है ।
३४३. अब यत्रतत्रानुपूर्वी के क्रमसे शेष अनुयोगद्वारोंके नाम का निर्देश करनेके लिये ही आगेके दो गाथासूत्र आये हैं-'सादिय जहण्ण संकम०' इसमें जो 'सादि जहण्ण' पदका ग्रहण किया है सो इससे सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव, सर्व, नोसर्व, उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य
और अजघन्य संक्रम संज्ञावाले अनुयोगद्वारोंका संग्रह करना चाहिये, क्योंकि देशामर्षकभावसे यह पद अवस्थित है। 'संक्रम' पद, ये अनुयोगद्वार प्रकृति संक्रमस्थानसे सम्बन्ध रखते हैं, यह सूचित करता है। 'कदिखुत्तो.' ऐसा कहनेपर एक एक संक्रमस्थानमें कितनीगुणी जोवराशि होतो है यह पृच्छा की गई है। इससे अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार सूचित होता है। 'अविरहिद' पदके ग्रहण करनेसे एक जीवकी अपेक्षा काल और 'सांतर' पदके ग्रहण करनेसे भी एक जीवकी अपेक्षा अन्तर ये अनुयोगद्वार सूचित होते हैं, क्योंकि केवचिरं' पदके ग्रहण करनेसे यह 'अविरहिद' और 'सांतर' इन दोनोंका विशेषण है यह सिद्ध होता है। तथा 'कदिभाग परिमाण' इसद्वारा भागाभागका संग्रह करना चाहिए, क्योंकि इस पदमें किन संक्रमस्थानोंके संक्रामक जोवराशिका प्रमाण सब जीवराशिका कितना भाग है इस पृच्छाका अवलम्बन लिया गया है ।
विशेषार्थ-आशय यह है कि इस ३१ वीं गाथामें संक्रमप्रकृतिस्थानसे सम्बन्ध रखनेवाले सादि संक्रम, अनादि संक्रम, ध्रुव संक्रम अध्रुव संक्रम, सर्वसंक्रम, नोसर्वसंक्रम, उत्कृष्टसंक्रम, अनुत्कृष्टसंक्रम, जधन्यसंक्रम, अजधन्यसंक्रम, अल्पबहुत्व, एक जीवकी अपेक्षा काल, एक जीपको अपेक्षा अन्तर ओर भागाभाग इन अनुयोगद्वारोंकी सूचना की गई है । अर्थात् इतने अनुयोगद्वारोंके द्वारा प्रकृतिसंक्रमस्थानका वर्णन करना चाहिये यह इसका अभिप्राय है।
६३४६. 'एवं दव्वे खेत्ते' इस गाथामें आये हुए ‘एवं' इस पद द्वारा नाना जीवोंसम्बन्धी
१. ताप्रतौ -मुवयारो इति पाठः ।
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