Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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२१० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ भवणादि जाव उवरिमगेवजा त्ति । णवरि सगट्ठिदी देसूणा । एवं जाव० ।
*णाणाजीवेहि भंगविचओ ।। ___ ४१२. अहियारसंभालणसुत्तमेदं सुगमं । एत्थेव अट्ठपरूवणमुत्तरसुत्तमोइण्णं
ॐ जेसिं पयडीयो अत्थि तेसु पयदं । ६ ४१३. कुदो ? अकम्मेहि अव्ववहारादो।
8 सव्वजीवा सत्तावीसाए छुव्वीसाए पणुवीसाए तेवीसाए एकवीसाए एदेसु पंचसु संकमहाणेसु णियमा संकामगा।
४१४. एत्थ सव्वजीवग्गहणमेदिस्से परूवणाए णाणाजीवविसयत्तपदुप्पायणफलं। सत्तावीसादिग्गहमियरसंकमट्ठाणवुदासढे । णियमग्गहणमणियमवुदासमुहेण पयदट्ठाणसंकामयाणं सव्वकालमत्थित्तजाणावणफलं । तदो एदेसि पंचण्हं संकमट्ठाणाणं संकामया जीवा सव्वकालमत्थि त्ति भणिदं होइ।। अन्तर कहना चाहिये । इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर उपरिम अवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिये । किन्तु सर्वत्र कुछ कम अपनी स्थिति कहनी चाहिये। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये।
विशेषार्थ देवोंमें नौ अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें अन्तर काल नहीं पाया जाता है, क्योंकि यहां पर जो भी संक्रमस्थान पाये जाते हैं उनका एक पर्यायमें दो बार पाया जाना सम्भव नहीं है । इसीसे सामान्य देवोंमें उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम इकतीस सागरप्रमाण बतलाया है, क्योंकि यह अन्तरकाल नौ वेयकतक ही पाया जाता है और उनकी उत्कृष्ट स्थिति इकतीस सागर ही है । शेष कथन सुगम है ।
* अब नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयका अधिकार है।
६४१२. अधिकारका निर्देश करनेवाला यह सूत्र सुगम है। अब इसी विषयमें अर्थपदका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र आया है
* जिनके प्रकृतियोंका सत्त्व है उनका यहाँ अधिकार है। 5 ४१३. क्योंकि कर्मरहित जीवोंसे प्रयोजन नहीं है ।
* सब जीव सत्ताईस, छब्बीस, पच्चीस, तेईस और इक्कीस इन पाँच संक्रमस्थानोंमें नियमसे संक्रामक हैं ।
६४१४. यह प्ररूपणा नाना जीवविषयक है यह दिखलाने के लिये इस सूत्रमें 'सव्व जीव' पदका ग्रहण किया है । इतर संक्रमस्थानका निषेध करनेके लिये 'सत्तावीस' आदि पदोंका ग्रहण किया है। अनियमका निषेध करके प्रकृत संक्रमस्थानोंका सर्वकाल अस्तित्व रहता है इस बातका ज्ञान करानेके लिये 'नियम' पदका ग्रहण किया है। इसलिये इन पाँच संक्रमस्थानोंके संक्रामक जीव सर्वदा पाये जाते हैं यह इस सूत्रका भाव है।
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