Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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१७८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ३६ मणुस्सतिए। णवरि मणुसिणीसु चोदससंकमो गत्थि । अहवा ओयरमाणमस्सिऊण अस्थि ।
३४८. आदेसेण णेरइएसु अत्थि २७, २६, २५, २३, २१ संकामया। एवं सव्वणेरया तिरिक्ख-पंचिदियतिरिक्खतिय-देवा जाव णवगेवजा त्ति ।
६३४९. पंचिं०तिरिक्खअपज०-मणुसअपज. अत्थि २७, २६, २५ संकामया। अणुद्दिसादि जाव सव्वढे त्ति अस्थि २७, २३, २१ संकामया। एवं जाव अणाहारि त्ति ।
३५०. सव्व-णोसव्व-उकस्साणुकस्स-जहण्णाजहण्णसंकमाणमेत्थ णत्थि संभवो,
संक्रामक जीव हैं। इसी प्रकार तीन प्रकारके मनुष्योंमें जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि मनुष्यनियोंमें चौदह प्रकृतिक संक्रमस्थान नहीं होता है। अथवा उतरनेवाले मनुध्यिनी जीवोंके होता है।
विशेषार्थ-ओघसे तो उक्त सभी स्थानोंके संक्रामक जीव हैं। मनुष्यगतिमें सामान्य मनुष्य और मनुष्य पर्याप्त इनके उक्त सब संक्रमस्थान सम्भव हैं । केवल मनुष्यनियोंके उपशमश्रेणि पर चढ़ते समय १४ प्रकृतिक संक्रमस्थान नहीं होता, क्योंकि जो २४ प्रकृतियोंकी सत्तावाला जीव उपशम श्रेणि पर चढ़ता है उसीके ६ नोकषायोंका उपशम होने पर १४ प्रकृतिक संक्रमस्थान पाया जाता है। कि तु स्त्रीवेदके उदयके साथ उपशमश्रेणि पर चढ़े हुए ऐसे जीवके छह नोकपाय
और पुरुषवेदका एक साथ उपशम होता है इसलिये इसके १४ प्रकृतिक संक्रमस्थान नहीं पाया जाता। हाँ उपशमश्रेणिसे उतरते समय जब १४ प्रकृतियोंका संक्रम होने लगता है तब मनुष्यनीके १४ प्रकृतिक संक्रमस्थान अवश्य प्राप्त हो जाता है। इसीसे यहाँ मनुष्यनीके उपशमश्रेणि पर चढ़ते समय १४ प्रकृतिक संक्रमस्थानका निषेध किया है।
६३४८. आदेशसे नारकियोंमें २७,२६, २५, २३ और २१ प्रकृतिक संक्रमस्थानोंके संक्रामक जीव हैं। इसी प्रकार सब नारकी, तिर्यश्च, पंचेन्द्रियतिर्यचत्रिक और सामान्य देवोंसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके देव इनके कथन करना चाहिये ।
विशेषार्थ_इन मार्गणाओं में ये ही संक्रमस्थान होते हैं, अतः यहाँ इनके संक्रामक जीव बतलाये हैं। किन्तु इतनी विशेषता है कि द्वितीयादि नरकोंमें, तिर्यश्चिनियोंमें और भवनत्रिकोंमें व सौधर्म ऐशान कल्पकी देवियोंमें २१ प्रकृतिक संक्रमस्थान क्षपणाकी अपेक्षा घटित न करके अनन्तानुबन्धीके विसंयोजक जीवोंकी अपेक्षा सासादन गुणस्थानमें एक आवलिकाल तक जानना चाहिये, क्योंकि इन मार्गणाओंमें क्षायिक सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति सम्भव नहीं है । इसलिये यहाँ दर्शनमोहनीयकी क्षपणाकी अपेक्षा २१ प्रकृतिक संक्रमस्थान नहीं प्राप्त होता यह सिद्ध होता है।
६३४६. पंचेन्द्रियतिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें २७, २६ और २५ प्रकृतिक स्थानोंके संक्रामक जीव हैं । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें २७,२३, और २१ प्रकृतिक स्थानोंके संक्रामक जीव हैं । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये।
विशेषार्थ_अनुदिशादिकमें २८ प्रकृत्तियोंकी सत्तावालेके २७ प्रकृतिक, २४ प्रकृतियोंकी सत्तावालेके २३ प्रकृतिक और २१ प्रकृतियोंकी सत्तावालेके २१ प्रकृतिक संक्रमस्थान होते हैं। शेष कथन सुगम है।
६ ३५०. यहाँ प्रकृतिसंक्रमस्थानमें सर्वसंक्रम, नोसर्वसंक्रम, उत्कृष्ट संक्रम, अनुत्कृष्ट संक्रम,
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