Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा०५७-५८ ] पयडिसंकमट्ठाणेसु ट्ठाणसमुक्त्तिणा
१७७ संग्रहः । 'दव्वे' इच्चेदेण सुत्तावयवेण दव्वपमाणाणुगमो । 'खेत्त'ग्गहणेण खेत्ताणुगमो च, पोसणाणुगमो च'काल'ग्गहणेण वि कालंतराणं णाणाजीवविसयाणं संगहो कायव्यो। 'भाव' ग्गहणं भावाणिओगदारस्स संगहणफलं । एत्थाहियरणणिद्देसोतव्विसयपरूवणाए तदाहारभावपदुप्पायणफलोत्ति दट्ठव्यो । 'सण्णिवाद' ग्गहणं च सण्णियासाणियोगद्दारस्स सूचणामेत्तफलं । 'च' सद्दो वि भुजगार-पदणिक्खेव-बड्डीणं सप्पभेदाणं संगाहओ, तेहि विणा पयदपरूवणाए असंपुण्णभावावत्तीदो। एवमेदेहिं अणेयणयगहणणिलीणाणिओगद्दारेहि 'संकमणयं' पयडिसक्रमगाहासुत्ताणमहिप्पायं णयविदू णयण्हू 'णेया' णयदु 'सुददेसिदं' मूलसुत्तसंदब्भसंदरिसिदपरूवणोवायं 'उदारं' अत्थगंभीरं सुत्ताहिप्पायं णयदु । ति उत्तं होइ । अहवा 'संकमणयं' संक्रमनीतकविधानं णयविदू नयज्ञः 'णेया' नयेत्प्रकाशयेदित्यर्थः । एवं णीदे संकमवित्तिगाहाणमत्थो परिसमत्तो होइ ।
६३४७. एत्तो गाहासुत्तसूचिदाणमणियोगद्दाराणं विहासणट्टमुच्चारणाए सह चुण्णिसुत्ताणुगमं कस्सामो । तं जहा—ट्ठाणसमुकित्तणाए दुविहो णिदेसो-ओघादेसभेदेण । तत्थोघेण अस्थि २७, २६, २५, २३, २२, २१, २०, १९, १८, १४, १३, १२, ११, १०, ९, ८, ७, ६, ५, ४, ३, २, १ एदेसिं संकामणा । एवं भंगविचयका संग्रह किया गया है। 'दब्बे' इस सूत्रवचनद्वारा द्रव्यप्रमाणानुगमका 'खेत्त' पदके ग्रहण करनेसे क्षेत्रानुगम और स्पर्शनानुगमका तथा 'काल' पदके ग्रहण करनेसे भी नाना जीव सम्बन्धी काल और अन्तर अनुयोगद्वारोंका संग्रह करना चाहिये। सूत्रमें 'भाव' पदका ग्रहण भाव अनुयोगद्वारके संग्रह करनेके लिये किया है। इस गाथामें जो उक्त सब पदोंका निर्देश अधिकरणरूपसे किया है सो उस उस विषयका कथन करते समय वह अनुयोगद्वार आधार हो जाता है यह दिखलानेके लिये किया है ऐसा यहाँ जानना चाहिये । 'सण्णिवाद' पदका ग्रहण सन्निकर्ष अनुयोगद्वारको सूचित करनेके लिये किया है। सूत्र में 'च' शब्द भी अपने भेदोसहित भुजगार, पदनिक्षेप और वृद्धि इन तीनोंका संग्रह करनेके लिये आया है, क्योंकि इनके विना प्रकृत प्ररूपणाके अधूरी रहनेकी आपत्ति आती है। इस प्रकार अनेक गहन नयोंके विषयभूत इन अनुयोगद्वारोंके द्वारा 'संकमणयं' अर्थात् प्रकृतिसंक्रमविषयक गाथा सूत्रोंके अभिप्रायको 'यविदू' अर्थात् नयके जानकार 'ऐया' अर्थात् जानें । तात्पर्य यह है कि 'सुददेसिदं' अर्थात् मून सूत्रके सन्दर्भमें दिखलाये गये प्ररूपणाके उपायको, जो उदारं अर्थात् अर्थगम्भीर है ऐसे सूत्रके अभिप्रायको जानें यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अथवा 'संकमणय' अर्थात् संक्रमसे प्राप्त हुए विधानको 'णयविदू' अर्थात् नयके जानकार पुरुष 'ऐया' अर्थात् प्रकाशित करें यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस प्रकार ले जाने पर संक्रमविषयक वृत्तिगाथाओंका अर्थ समाप्त होता है।
___३४७. अब इससे आगे गाथासूत्रोंके द्वारा सूचित होनेवाले अनुयोगद्वारोंका व्याख्यान करनेके लिये उच्चारणाके साथ चूर्णिसूत्रोंका परिशीलन करते हैं। यथा-स्थान समुत्कीर्तनाकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा २७, २६, २५, २३, २२, २१, २०, १६, १८, १४, १३, १२, ११, १०, ६, ८, ७.६, ५, ४, ३, २ और १ इन स्थानोंके
१. ताप्रतौ पयडिगाहासंकमसुत्ताण- इति पाठः। २. प्रा०प्रतौ णयविदो णयहो इति पाठः। ३. ता०प्रतौ णयविदू नयज्ञाः, प्रा०प्रतौ णयविदो नयज्ञाः इति पाठः।
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