Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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२०२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[पंधगा ६ * पणुवीससंकामयंतरं केवचिरं कालादो होइ ? । ३९९. सुगमं ।
जहएणेण अंतोमुहुत्तं,उक्कस्सेण वेछावहिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । ६४००. एत्थ ताव जहण्णंतरं वुच्चदे। तं जहा-एओ सम्मामिच्छाइट्ठी पणुवीसंसंकामयभावेणावट्ठिदो परिणामपञ्चएण सम्मत्तं मिच्छत्तं वा परिणमिय तत्थ सव्वजहण्णंतोमुहुत्तमेत्तकालं सत्तावीससंकमेणंतरिय पुणो सम्मामिच्छत्तमुवणमिय पणुवीससंकामओ जादो, लद्धमंतरं । संपहि उकस्संतरपरूवणं कस्सामो--अण्णदरो मिच्छाइट्ठी पणुवीससंकामओ उवसमसम्मत्तं पडिवज्जिय अविवक्खियसंकमट्ठाणेणंतरिय पुणो मिच्छत्तं गंतूण सव्वुक स्सेणुव्वेल्लणकालेण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तमुव्वेल्लमाणो उवसमसम्मत्ताहिमुहो होदूण अंतरकरणं करिय मिच्छत्तपढमहिदिचरिमसमए सम्मामिच्छत्तचरिमफालिं संकामिय तदणंतरसमए सम्मत्तं षडिवञ्जिय पढमछावटुिं परिभमिय तदवसाणे मिच्छत्तं गंतूण पलिदोवमासंखेजभागमेत्तकालं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुव्वेल्लणवावारेणच्छिय तदो पयदाविरोहेण सम्मत्तं घेत्तूण विदियछावट्ठिमणुपालिय तदवसाणे पुणो वि मिच्छत्तं गंतूण दीहुव्वेलणकालेण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणि
* पच्चीस प्रकृतिक संक्रामकका कितना अन्तरकाल है ? ६३६६. यह सूत्र सुगम है ।
* जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक दो छयासठ सागर है।
६४००. अब यहां सर्व प्रथम जघन्य अन्तरकालका कथन करते हैं । यथा-पच्चीस प्रकृतियोंका संक्रम करनेवाला कोई एक सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव परिणामवश सम्यक्त्वको या मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ और वहाँ उसने सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त कालतक सत्ताईस प्रकृतियोंके संक्रम द्वारा पच्चीस प्रकृतियोंके संक्रमका अन्तर किया। फिर वह सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होकर पच्चीस प्रकृतियोंका संक्रामक हो गया। इस प्रकार पच्चीस प्रकृतिक संक्रमस्थानका जघन्य अन्तर प्राप्त हो जाता है। अब उत्कृष्ट अन्तरकालका कथन करते हैं-किसी एक पच्चीस प्रकृतियोंके संक्रामक मिथ्यादृष्टि जीवने उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करके अविवक्षित संक्रमस्थानके द्वारा प्रकृत संक्रमस्थानका अन्तर किया। फिर वह मिथ्यात्वमें जाकर सबसे उत्कृष्ट उद्वेलना कालके द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करता हुआ उपशम सम्यक्त्वके अभिमुख हुआ। फिर अन्तरकरणको करके मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिके चरम समयमें सम्यग्मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिका संक्रमण करके तदनन्तर समयमें सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। फिर प्रथम छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण करके उसके अन्तमें मिथ्यात्वको प्राप्त हआ। फिर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक सम्यक्त्व सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करते हुए जिससे प्रकृतमें विरोध न पड़े इस ढंगसे सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। फिर दूसरे छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वका पालन करके उसके अन्तमें फिरसे मिथ्यात्वमें गया और वहाँ सबसे दीर्घ उद्वेलनकालके द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करके
१. श्रा०प्रतौ एलो पणुवीस- इति पाठः ।
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