Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० ५८ ] पयडिसंकमट्ठाणाणं एयजीवेण अंतर
२०३ उव्वेल्लिऊण पणुवीससंकामओ जादो, लद्धं तीहि पलिदोवमासंखेजभागेहि सादिरेयवेछावहिसागरोवममेत्तं पणुवीससंकामयस्स उक्कस्संतरं । संपहि वावीसादिसंकमट्ठाणाणमंतरपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणइ--
ॐ वावीस-वीस-चोदस-तेरस-एक्कारस-दस-अट्ठ-सत्त-पंच-चदु-दोषिणसंकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ?
४०१. सुगमं । * जहएणण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण उवडपोग्गलपरियट्ट।
४०२. वावीसाए ताव जहण्णंतरपरूवणा कीरदे--एक्को चउवीससंतकम्मिओवसामओ लोभासंकमवसेण वावीसाए संकामओ होदण पुणो णवंसयवेदमुवसामिय अंतरिदो उवरिं चढिय पुणो हेट्ठा ओदरिय इत्थिवेदोकड्डणाणंतरं वावीससंकामओ जादो, लद्धमंतरं जहण्णेणंतोमुहुत्तमेत्तं । एवं वीसाए । णवरि इगिवीससंतकम्मियस्स वत्तव्यं । चोदससंकामयस्स वि एवं चेव । णवरि चउवीससंतकम्मियस्स छण्णोकसायोवसामणाए चोदससंकमस्सादि कादूण पुरिसवेदोवसामणाए अंतरिदस्स पुणो हेट्ठा ओदरिय तिविहकोहोकड्डणाणंतरं लद्धमंतरं कायव्वं । एवं तेरससंकामयस्स । णवरि पुरिसवेदोवपञ्चीस प्रकृतियोंका संक्रामक हो गया। इस प्रकार पच्चीस प्रकृतियोंके संक्रामकका उत्कृष्ट अन्तर पल्यके तीन असंख्यातवें भागोंसे अधिक दो छयासठ सागर प्राप्त होता है। अब बाईस आदि संक्रमस्थानोंके अन्तरका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* बाईस, बीस, चौदह, तेरह, ग्यारह, दस, आठ, सात, पाँच, चार और दो प्रकृतिक संक्रामकका कितना अन्तरकाल है ?
$ ४०१. यह सूत्र सुगम है।
* जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपाधपुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है।
६४०२. अब सर्वप्रथम बाईस प्रकृतिक संक्रमस्थानके जघन्य अन्तरका कथन करते हैंएक चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला उपशामक जीव लोभका संक्रम न होनेके कारण बाईस प्रकृतियोंका संक्रामक हो गया। फिर जिसने नपुंसकवेदका उपशम करके बाईस प्रकृतियोंके संक्रमका अन्तर किया । फिर ऊपर चढ़कर और उतरकर स्त्रीवेदके अपकर्षणके बाद जो बाईस प्रकृतियोंका संक्रामक हो गया उसके बाईस प्रकृतियोंके संक्रामकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है। बीस प्रकृतिक संक्रामकका जघन्य अन्तर भी इसी प्रकार प्राप्त होता है। किन्तु यह अन्तर इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवके कहना चाहिये। चौदह प्रकृतिक संक्रामकका जघन्य अन्तर भी इसी प्रकार प्राप्त होता है। किन्तु जो चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जीव छह नोकषायोंके उपशम द्वारा चौदह प्रकृतियोंके संक्रमका प्रारम्भ करके फिर पुरुषवेदके उपशम द्वारा उसका अन्तर करता है उसके उपशमश्रेणिसे नीचे उतरने पर तीन प्रकारके क्रोधका अपकर्षण होनेके बाद यह अन्तर प्राप्त करना चाहिये । इसी प्रकार तेरह प्रकृतिक संक्रामकका भी जघन्य अन्तर प्राप्त होता है। किन्तु
१. आ. प्रतौ -मुहुत्तं इति पाठः।
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