Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० ५८ ]
पयडिसंकमट्ठाणाणं एयजीवेण अंतरं णवरि मायासंजलणोवसामणाणंतरमासादिदसरूवस्सेदस्स दुविहलोहोवसामणाए अंतरस्सादि कादूण पुणो ओदरमाणावत्याए अणियट्टिपढमसमए लद्धमंतरं कायव्वं । एवं दोण्हं संकामयस्स । णवरि इगिवीससंतकम्मियसंबंधेण सव्वजहण्णंतोमुहुत्तमत्तमंतरमणुगंतव्वं । एवं जहण्णंतरपरूवणा कदा।
४०३. संपहि उक्कस्संतरे भण्णमाणे तत्थ ताव वावीसाए उच्चदे । तं जहाएको अणादियमिच्छाइट्ठी अद्धपोग्गलपरियट्टादिसमए पढमसम्मत्तमुप्पाइय वेदगसम्मत्तं पडिवञ्जिय अणंताणुबंधिविसंजोयणापुरस्सरं दंसणतियमुवसामिय सव्वलहुमुवसमसेढिमारूढो । पुणो ओदरमाणो इत्थिवेदोकड्डणाणंतरं वावीससंकमट्ठाणस्सादि कादूण अंतरिदो देसूणद्धपोग्गलपरियट्टमेत्तकालं परिभमिऊण तदो अंतोमुहुत्तावसेसे सिज्झिदव्वए त्ति सम्मत्तुप्पायणपुरस्सरं दसणमोहक्खवणं पट्टविय मिच्छत्तचरिमफालीपदणाणंतरं वावीससंकामओ जादो, लद्धमंतरं होइ । एवं वीसादिसेससंकमट्ठाणाणं पि उक्कस्संतरं परूवेयव्वं । णवरि सव्वेसिमुवसमसेढीए चढमाणोदरमाणावत्थासु जहासंभवमादि कादणंतरिदस्स पुणो उवसमसेढिमारोहणेण लद्धमंतरं कायव्यं । तेरसेकारस-दस-चदुदोण्णिसंकमट्ठाणाणं च खवगसेढीए लद्धमंतरं कायव्वमिदि। संपहि एकिस्से संकमट्ठाणस्स अंतराभावंपदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तमाहपर इस स्थानको प्राप्त करके फिर दो प्रकारके लोभका उपशम हा जाने पर अन्तरका प्रारम्भ करे और फिर उपशमश्रेणिसे उतरते समय अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमें अन्तरको प्राप्त करना चाहिये । इसी प्रकार दो प्रकृतियोंके संक्रामकका अन्तर प्राप्त होता है। किन्तु इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवके सम्बन्धसे इसका अन्तर सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्तप्रमाण जानना चाहिये। इस प्रकार जघन्य अन्तरका कथन समाप्त हुआ।
६४०३. अब उत्कृष्ट अन्तरका कथन करते हैं। उसमें भी सर्वप्रथम बाईस प्रकृतिक संक्रमस्थानका अन्तर कहते हैं। यथा-एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीवने अर्धपुद्गलपरिवर्तनके प्रथम समयमें प्रथम सम्यक्त्वको प्राप्त करके वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त किया। फिर अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनापूर्वक तीन दर्शनमोहनीयका उपशम करके अतिशीघ्र उपशमश्रेणि पर चढ़ा। फिर वहाँसे उतरते समय स्त्रीवेदका अपकर्षण करके बाईस प्रकृतिक संक्रमस्थानका प्रारम्भ किया और उसका अन्तर करके कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन कालतक परिभ्रमण करता रहा । फिर सिद्ध होनेमें अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहने पर सम्यक्त्वकी उत्पत्तिपूर्वक दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ करके मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिके पतनके बाद बाईस प्रकृतियोंका संक्रामक हो गया। इस प्रकार बाईस प्रकृतिक संक्रमस्थानका उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त हो जाता है । इसी प्रकार बीस प्रकृतिक आदि शेष संक्रमस्थानोंके उत्कृष्ट अन्तरका भी कथन करना चाहिये। किन्तु उपशमश्रेणि पर चढ़ने या उतरनेकी अवस्थामें सभी स्थानोंको यथासम्भव प्राप्त करके अन्तरका प्रारम्भ करे और फिर अन्तमें उपशमश्रेणि पर आरोहण करके अन्तर ले आवे । तथा तेरह, ग्यारह, दस, चार और दो प्रकृतिक संक्रमस्थानोंका क्षपकश्रेणिमें उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त करना चाहिये। अब एक प्रकृतिक संक्रमस्थानके अन्तरका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
१. श्रा०प्रतौ अंतरभाव- इति पाठः ।
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