Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० ५८ ] पयडिसंकमट्ठाणाणं एयजीवेण अंतर
२०१ कालमाविद्धकुलालचकं व परिभमिय सव्वजहण्णंतोमुहुत्तावसेसे संसारे उवसमसम्मत्तं घेत्तूण वेदगभावं पडिवन्जिय खवगसेढिमारोहणटुं अणंताणु० विसंजोइय तेवीससंकामओ जादो, लद्धमुक्कस्संतरं होइ।
६३९८. इगिवीसाए जहण्णेणेयसमओ उच्चदे--एगो इगिवीससंतकम्मिओ उवसमसेढिं चढिय अंतरकरणपरिसमत्तीएं लोहासंकमवसेणेयसमयं वीससंकमेणंतरिय कालगदो देवो होऊणिगिवीससंकामओ जादो, लद्धं पयदजहण्णंतरं। संपहि उक्कस्संतरं उच्चदे । एगो अणादियमिच्छाइट्ठी अद्धपोग्गलपरियट्टादिसमए पढमसम्मत्तं पडिवजिय तकालब्भंतरे चेय अणंताणु० चउकं विसंजोइय उवसमसम्मत्तद्धाए छावलियमेत्तावसेसाए सासादणभावमासादिय इगिवीससंकामयभावेणावलियमेत्तकालं गालिय तदणंतरसमए पणुवीससंकमेणंतरिय तदो मिच्छत्तेणद्धपोग्गलपरियट्टमेत्तकालं परियट्टिय सव्वजहण्णंतोमुहुत्तमेत्तावसेसे सिज्झिदव्वए दंसणमोहं खविय इगिवीससंकामओ जादो, लद्धमिगिवीससंकामयस्स देसूणद्धपोग्गलपरियट्टमेत्तमुक्कस्संतरं। एवमेदेसिं चउण्हं संकमट्ठाणाणं जहण्णुक्कस्संतरविसयणिण्णयं काऊण संपहि पणुवीससंकमट्ठाणस्स तदुभयणिरूवण?मुवरिमसुत्तं भणइघुमाये गये कुम्हारके चक्केके समान कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण काल तक परिभ्रमण करता रहा और जब संसारमें रहनेका सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल शेष बचा तब वह उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ और वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त करके क्रमसे क्षपकश्रेणि पर चढ़नेके लिये अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके तेईस प्रकृतियोंका संक्रामक हो गया । इस प्रकार तेईस प्रकृतिक संक्रमस्थानका उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त हो जाता है।
३६८. अब इक्कीस प्रकृतिक संक्रमस्थानके जघन्य अन्तर एक समयका कथन करते हैं-एक इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जीव उपशमश्रेणि पर चढ़ा और उसने अन्तरकरणकी समाप्ति होनेपर लोभका संक्रम न होनेसे एक समयके लिये बीस प्रकृतियोंके संक्रमणद्वारा इक्कीस प्रकृतियोंके संक्रमका अन्तर किया। फिर वह मरा और देव होकर इक्कीस प्रकृतियोंका संक्रामक हो गया। इस प्रकार प्रकृत स्थानका जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त हो जाता है। अब उ.कृष्ट अन्तरका कथन करते हैं-एक अनादि मिथ्याष्टि जीवने अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण कालके प्रथम समयमें उपशमसम्यक्त्व प्राप्त करके उसी कालके भीतर अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना की। फिर उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलि शेष रहने पर सासादन गुणस्थानको प्राप्त होकर एक श्रावलि काल तक इक्कीस प्रकृतियोंका संक्रमण करता रहा। फिर तदनन्तर समयमें पच्चीस प्रकृतियोंके संक्रमद्वारा इक्कीस प्रकृतियोंके संक्रमका अन्तर किया। फिर मिथ्यात्वके साथ कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल तक परिभ्रमण किया और जब सिद्ध होने के लिये सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहा तब दर्शनमोहनीयका क्षय करके इक्कीस प्रकृतियोंका संक्रामक हो गया। इस प्रकार इक्कीस प्रकृतियोंके संक्रामकका कुछकम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण उत्कष्ट अन्तरकाल प्राप्त होजाता है। इस प्रकार इन चार संक्रमस्थानोंके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर कालका निर्णय करके अब पच्चीस प्रकृतिक संक्रमस्थानके उक्त दोनों अन्तर कालोंका निर्णय करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
१. ता प्रतौ -करणं परिसमत्तीए इति पाठः । २. श्रा०प्रतौ -मेत्तमिस्संतरं इति पाठः ।
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