Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
View full book text
________________
१८० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६९ तं कधं ? एत्तो उवरि सामित्तमवसरपत्तं णेदव्वं । कधं णेदव्वं इदि पुच्छिदे पदाणुमाणियं पुव्वुत्ताणि अत्थपदाणि आणुपुव्वीसंकमादीणि णिबंधणं कादूण णेदव्वमिदि उत्तं होइ । संपहि एदेण समप्पिदत्थविवरद्वमुच्चारणं वत्तइस्सामो। तं जहा-सामित्ताणुगमेण दुविहो णिदेसो-ओघेणादेसेण । ओघेण २७, २६, २३ संकमो कस्स ? अण्णदरस्स सम्माइडिस्स वा मिच्छाइट्ठिस्स वा । २५ संकमो कस्स ? मिच्छा० सासण० सम्मामि० वा। २१ संकमो कस्स ? सासण० सम्मामिच्छाइद्विस्स सम्मादिहिस्स वा । वावीसवीसप्पहुडि जाव एक्किस्से संकमो कस्स ? अण्णदरस्स सम्माइद्विस्स । एवं मणुसतिए । णवरि मणुसिणीसु १४ संकमसामित्तं णत्थि । अहवा ओयरमाणमस्सियूण चउवीससंतकम्मियोवसामयस्स सामित्तं वत्तव्वं ।
३५३. आदेसेण णेरइय० २७, २६, २३ कस्स ? अण्णद० सम्माइट्ठि. मिच्छाइट्ठि० । २५, २१ कस्स ? ओघं । एवं पढमपुढवि-तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्ख २देवगदिदेवा सोहम्मादि जाव णवणेवजा त्ति । एवं विदियादि जाव सत्तमि त्ति । णवरि इगिवीससंकमो सम्माइट्ठिस्स णत्थि। एवं जोणिणी-भवण०-वाण-जोदिसिया त्ति । पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज०-मणुसअपज्ज०-अणुद्दिसादि सव्वट्ठा ति अप्पप्पणो आगे स्वामित्व अवसर प्राप्त है, इसलिए उसे जानना चाहिये । कैसे जानना चाहिए ऐसा पूछनेपर पदानुमानित अर्थात् आनुपूर्वी, संक्रम आदि अर्थपदोंको निमित्त करके जानना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अब इससे प्राप्त हुए अर्थका विवरण करनेके लिए उच्चारणाको बतलाते हैं। यथा-स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे २७, २८
और २३ प्रकृतिक संक्रमस्थान किसके होते हैं ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टिके होते हैं। २५ प्रकृतिक संक्रमस्थान किसके होता है ? मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्थादृष्टि के होता है । २१ प्रकृतिक संक्रमस्थान किसके होता है ? सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टिके होता है। २२ और २० प्रकृतिक संक्रमस्थानोंसे लेकर एक प्रकृतिक संक्रमस्थान तकके सब संक्रमस्थान किसके होते हैं ? अन्यतर सम्यग्दृष्टिके होते हैं। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि मनुष्यनियों में १४ प्रकृतिक संक्रमस्थानका स्वामित्व नहीं है । अथवा उपशमश्रेणीसे उतरनेवाले जीवकी अपेक्षा चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले उपशामक स्त्रीवेदीके १४ प्रकृतिक संक्रमस्थानका स्वामित्व कहना चाहिए।
६ ३५३. आदेशसे नारकियोंमें २७, २६ और २३ प्रकृतिक संक्रमस्थान किसके होते हैं ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टिके होते हैं। २५ और २१ प्रकृतिक संक्रमस्थान किसके होते हैं ? इनका स्वामित्व ओघके समान है। इसी प्रकार प्रथम पृथिवीके नारकी, तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तियञ्च, पंचेन्द्रिय तिर्यश्च पर्याप्त, देवगति में सामान्य देव और सौधर्म कल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए । इसी प्रकार दूसरे नरकसे लेकर सातवें नरक तकके नारकियोंमें जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इन नारकियोंमें सम्यग्दृष्टिके इक्कीस प्रकृतिक संक्रमस्थान नहीं होता। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनी, भवनबासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें जानना चाहिये । पंचेन्द्रिय तियञ्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त और अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें अपने अपने तीन संक्रमस्थान किसके होते हैं ? अन्यतरके होते हैं । इसी प्रकार
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org