Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६
मिच्छाट्टिणा सम्मत्तुब्वेल्लणवावदेण सम्मत्तस्स समयूणावलियमेत्तगोवुच्छावसेसे कदे अट्ठावीस संतेण सह छब्वीससंकमो होइ २ । अहवा छत्रीससंतकम्मिएण पढमसम्मत्ते उप्पादे अट्ठावीससंतकम्माहारं छव्वीससंक मट्ठाणमुप्पजइ । अविसंजोइदाणताणुबंधिणा उवसमसम्माइट्टिणा सासणगुणे पडिवण्णे अट्ठावीस संतकम्मिएण सम्मामिच्छत्ते वा पडिवण्णे अट्ठावीससंतकम्म सहगदं पणुवीससंकमड्डाणमुप्पअर ३ । अनंताणुबंधी विसंजोइय संजुत्तमिच्छाइट्ठिपढमावलियाए तेवीसपयडिसंकमट्ठाणमट्ठावीससंक मट्ठाणपडिबद्धमुप्पज्जइ । अहवा अणंताणु० विसंजोयणाचरिमफालिं संकामियं समयूणाव लियमेगोच्छावसेसे वट्टमाणस्स तमेव संकमड्डाणं तेणेव संतकम्मट्ठाणेणाहिद्विदमुप्पजदि ४ । अणताणु ० विसंजोयणापुरस्सरं सासणगुणं पडिवण्णस्स आवलियमेत्त कालमट्ठावीससंतकम्मेण सह इगिवीससंकमद्वाणमुप्पज्जइ ५ । एवमेदाणि पंच संकमद्वाणाणि अड्डाatrina मयस्स होंति ।
६ ३२१. संपहि सत्तावीसाए उच्चदे - अट्ठावीस संत कम्मियमिच्छाइट्टिणा सम्मत्ते उव्वेल्लिदे सत्तावीससंतकम्मं घेत्तूर्ण छन्वीससंकमो होइ १ । पुणो तेणेव सम्मामिच्छत्तमुब्वेल्लंतेण समयूणावलियमेत्त गोवुच्छाव सेसे कए सत्तावीस संत कम्मेण सह पणुवीसहोता है १ । जो मिथ्यादृष्टि जीव सम्यक्त्वकी उद्व ेलना कर रहा है उसके सम्यक्त्वकी गोपुच्छाके एक समयकम एक आयलिप्रमाग शेष रहने पर अट्ठाईस प्रकृतिक सत्त्वस्थानके साथ छब्बीस प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है २ । अथवा जो छब्बीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जीव प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करता है उसके प्रथम सम्यक्त्वके उत्पन्न करनेपर अट्ठाईस प्रकृतिक सत्कर्मका आधारभूत छब्बीस प्रकृतिक संक्रमस्थान उलन्न होता है। जिस उपशमसम्यग्दृष्टिने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना नहीं की है उसके सासादनगुणस्थानको प्राप्त होने पर या अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्तावाले जीवके सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होने पर अट्ठाईस प्रकृतिक सत्कर्मके साथ पच्चीस प्रकृतिक ● संक्रमस्थान उत्पन्न होता है ३ । जो सम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके फिर मिथ्यात्वमें जाकर उससे संयुक्त होता है उसके प्रथम आवलिमें अट्ठाईस प्रकृतिक सत्कर्म से सम्बन्ध रखनेवाला तेईस प्रकृतिक संक्रमस्थान उत्पन्न होता है । अथवा अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाकी अन्तिम फालिका संक्रम करनेके बाद एक समयकम एक अवलिप्रमाण गोपुच्छाके शेष रहने पर उसी सत्कर्मके आधारसे वही संक्रमस्थान उत्पन्न होता है ४ । जो अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनापूर्वक सासादनगुणस्थानको प्राप्त होता है उसके एक वलिप्रमाण कातक अट्ठाईस प्रकृतिक सत्कर्मके साथ इक्कीस प्रकृतिक संक्रमस्थान उत्पन्न होता है ५ । इस प्रकार ये पांच संक्रमस्थान अट्ठाईस प्रकृतिक सत्कर्मवाले जीवके होते हैं ।
९ ३२१. अत्र सत्ताईस प्रकृतिक सत्कर्मवालेके कितने संक्रमस्थान होते हैं यह बतलाते हैं अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्तावाले मिथ्यादृष्टि जीवके सम्यक्त्वकी उद्व ेलना कर लेने पर सत्ताईस प्रकृतिक सत्कर्मके साथ छब्बीस प्रकृतिक संक्रमस्थान उत्पन्न होता है १ । फिर सम्यग्मिथ्यात्वकी ना करते हुए उसी जीवके एक समय कम एक श्रावलिप्रमाण गोपुच्छाके शेष रहने पर
३. ता० - श्रा० प्रत्योः
१. श्र०प्रतौ - हारट्ठ इति पाठः । २. ता०प्रतौ संकामय इति पाठः । मोत्तूण इति पाठः ।
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