Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० ४६] संतकम्मट्ठाणेसु संकमट्ठाणपरूवणा]
१६३ ३१९. एवं गदिआदिमग्गणासु संकमट्ठाणाणं संभवगवेसणमण्णय-वदिरेगेहिं कादूण संपहि बंध-संकम-संतकम्मट्ठाणाणमेग-दुसंजोगकमेण णिरंभणं कादूण सण्णियासपरूवणट्ठमुवरिमगाहासुत्तमाह—'कम्मंसियट्ठाणेसु य.' एसा गाहा ढाणसमुकित्तणाए ओघादेसेहि समुक्कित्तिदाणं संकमट्ठाणाणं पडिणियदपडिग्गहट्ठाणपडिबद्धाणं बंध-संतहाणेसु मग्गणाविहिं परूवेदि। एदिस्से अत्थविवरणं कस्सामो। तं जहाकम्मंसियट्ठाणाणि णाम संतकम्मट्ठाणाणि । ताणि च मोहणीए. अट्ठावीस-सत्तावीसछब्बीस-चउवीस-तेवीस-बावीसेकवीस-तेरस-बारस-एकारस-पंच-चदुक्क-ति-दु-एकपयडिपडिबद्धाणि । तेसिमेसा टवणा-२८, २७, २६, २४, २३, २२, २१, १३, १२, ११, ५, ४, ३, २, १। बंधाणाणि च वावीस-इगिवीस-सत्तारस-तेरस-णव-पंचचदुक्क-ति-दु-एकसण्णिदाणि २२, २१, १७, १३, ९, ५, ४, ३, २, १ एवमेदाणि परिवाडीए ठविय पादेक्कमेदेसु सत्तावीसादिसंकमट्ठाणाणं संभवगवेसणा कायव्वा त्ति गाहासुत्तपुबद्धे समुच्चयत्थो। 'एक्केक्केण समाणय' एवं भणिदे बंध-संतट्ठाणेसु एक्केकेण सह 'समाणय' सम्यगानुपूर्व्यानयेत्यर्थः । बंध-संतढाणाणि पुध० आधारभूदाणि दृविय तेसु संकमट्ठाणाणि णेदव्वाणि त्ति भावत्थो।।
$ ३२०. तत्थ ताव संतकम्मट्ठाणेसु संकमट्ठाणाणं गवसणा कीरदे । तं कथं ? मिच्छादिट्ठिस्स वा सम्मादिहिस्स वा अट्ठावीससंतकम्मं होऊण सत्तावीससंकमो होइ १ ।
$ ३१९. इस प्रकार गति आदि मार्गणाओंमें कहाँ कितने संक्रमस्थान सम्भव हैं इसका अन्वय और व्यतिरेक द्वारा विचार करके अब बन्धस्थान, संक्रमस्थान और सत्कर्मस्थान इन्हें एकसंयोग और दोसंयोगके क्रमसे विवक्षित करके सन्निकर्षका कथन करनेके लिये आगेका गाथासूत्र कहते हैं--कम्मंसियट्ठाणे तु य' स्थानसमुत्कीर्तना अनुयोगद्वार में जो संक्रमस्थान ओघ और आदेशसे कहे गये हैं तथा जो प्रतिनियत प्रतिग्रहस्थानोंसे सम्बन्ध रखते हैं वे बन्धस्थानों, और सत्त्वस्थानोंमें कहां कितने होते हैं इस बातका कथन यह गाथा करती है। अब इस गाथाके अर्थका व्याख्यान करते हैं। यथा-कर्माशिकस्थान यह सत्कर्मस्थानका दूसरा नाम है। वे मोहनीयकर्म में अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, चौबीस, तेईस, बाईस, इक्कीस, तेरह, बारह, ग्यारह, पांच. चार, तीन, दो और एक इतनी प्रकृतियों से प्रति .द्ध हैं। उनकी अंकोंद्वारा यह स्थापना है - २८, २७, २६, २४, २३, २२, २१, १३, १२, ११, ५, ४, ३, २ और १। और बन्धस्थान बाईस, इक्कीस, सत्रह, तेरह, नौ, पांच, चार, तीन, दो और एक प्रकृतिक होते हैं .. २२, २१, १७, १३, ९, ५, ४, ३, २ और १ । इस प्रकार इन्हें क्रमसे स्थापित करके इनमेंसे प्रत्येकमें सत्ताईस प्रकृतिक आदि सम्भव संक्रमस्थानोंका विचार करना चाहिये यह इस गाथासूत्रके पूर्वार्धका समुच्चयार्थ है । तथा गाथाके उत्तरार्धमें 'एक्केकेण समाणय' ऐसा कहने पर बन्धस्थानों और सत्त्वस्थानोंमेंसे एक एकके साथ 'समाणय' अर्थात् भले प्रकार इस आनुपूर्वीसे बन्धस्थानों और सत्त्वस्थानोंको आधाररूपसे अलग अलग स्थापित करके उनमें संक्रमस्थानोंको जानना चाहिये यह इसका भावार्थ है।
६ ३२०. उनमेंसे सर्वप्रथम सत्कर्मस्थानोंमें संक्रमस्थानोंका विचार करते हैं। यथामिथ्यादृष्टि या सम्यग्दृष्टि जीवके अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता होकर सत्ताईस प्रकृतियों का संक्रम
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