Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh

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Page 169
________________ १५६ जैयधवलासहिदे कसायपाहुडै [ बंधगो ६ गदवेदभावमुवगयस्स संकमट्ठारसपयडिपडिबद्धमेक्कं चेव पुणरुत्तभावविरहिदमुवलब्भइ, एत्तो उवरिमाणं पुणरुत्तभावदसणादो । एदस्स चेव सेढीदो ओदरमाणयस्स बारसकसायसत्तणोकसायाणमोक्कड्डणावावदस्स पयदमग्गणाविसयमेगूणवीससंकमट्ठाणमपुणरुत्तमुप्पज्जदे, तेणेदेसिं दोण्हं संकमट्ठाणाणं पुविल्लेहि सह मेलणे कदे पण्णारस संकमट्ठाणाणि होति । एवं चेव गqसयवेदोदयसहगदचउवीससंतकम्मियस्स वि चढणोवयरणवावदस्स दोण्हमपुणरुत्तसंकमट्ठाणाणमुप्पत्ती वत्तव्वा, तत्थ जहाकमं पुव्वुत्तपदेसु वीसेक्कवीसाणमवगदवेदसंबंधेण समुप्पज्जंताणमुवलंभादो। एदाणं पुव्विल्लसंकमट्ठाणाणमुवरि पक्खेवे कदे सत्तारससंकमट्ठाणाणि पयदविसए लद्वाणि भवंति । खवगस्स वि पुरिस-णqसयवेदोदइल्लस्स चउक्कदसगप्पहुडीणि अवगदवेयसंकमट्ठाणाणि पुणरुत्ताणि चेव समुप्पज्जति । णवरि सव्वपच्छिममेकिस्से संकमट्ठाणमपुणरुत्तमुवलब्भदे। तदो एदेण सह अट्ठारससंकमट्ठाणाणि अवगदवेदजीवपडिबद्धाणि भवंति ।। ३०६. संपहि णqसयवेदमग्गणाएं णव संकमट्ठाणाणि होति त्ति विदिओ सुत्तावयवो। तत्थ सत्तावीसादीणि इगित्रीसपज्जताणि छ संकमट्ठाणाणि सेढीदो हेट्ठा चेव णिरुद्धवेदोदयम्मि लब्भंति । इगिवीससंतकम्मियोवसामगस्स आणुपुव्वीसंकममस्सियूण वीससंकमट्ठाण मेत्थोवलब्भदे । पुणो णवंसयवेदोदएण सेढिमारूढस्स खवगस्स अट्ठकसायक्खवणेण तेरससंकमट्ठाणमुवलब्भइ । तस्सेवाणुपुव्वीसंकमपरिणदस्स अपगतवेदभावको प्राप्त हो जाता है तब उसके मात्र अठारह प्रकृतिक संक्रमस्थान अपुनरुक्त उपलब्ध होता है क्योंकि इससे आगेके संक्रमस्थान पुनरुक्त देखे जाते हैं। तथा जब यही जीव श्रेणिसे उतरते समय बारह कषाय और सात नोकषायोंका अपकर्षण कर लेता है तब इसके प्रकृत मार्गणाका विषयभूत अपुनरुक्त उन्नीस प्रकृतिक संक्रमस्थान उत्पन्न होता है । अतः इन दो संक्रमस्थानोंको पूर्वोक्त तेरह संक्रमस्थानोंमें मिलाने पर पन्द्रह संक्रमस्थान होते हैं। तथा इसी प्रकार नपुसकवेद के उदयके साथ चौबीस प्रकृतियों की सत्तावाले जीवके भी चढ़ते और उतरते समय दो अपुनरुक्त स्थानोंकी उत्पत्ति कहनी चाहिये, क्योंकि वहां पर क्रमसे पूर्वोक्त स्थानोंमें अपगतवेदके सम्बन्धसे बीस प्रकृतिक और इक्कीस प्रकृतिक ये दो स्थान उत्पन्न होते हुए उपलब्ध होते हैं। इन स्थानोंको पूर्वोक्त संक्रमस्थानोंमें मिला देने पर प्रकृत विषयमें सत्रह संक्रमस्थान लब्ध होते हैं। पुरुषवेद और नपुसकवेदके उदयवाले क्षपक जोरके भी अपगतवेद सम्बन्धी क्रमसे चार आ दे और दस आदि संक्रमस्थान पुनरुक्त ही उत्पन्न होते हैं। किन्तु इतनी विशेषता है कि सबके अन्तमें एक प्रकृतिक संक्रमस्थान अपुनरुक्त उपलब्ध होता है। इसलिये इसके साथ अपगतवेदी जीवसे सम्बन्ध रखनेवाले अठारह संक्रमस्थान होते हैं। ६३०६. अब नपुसकवेद मार्गणामें नौ संक्रमस्थान होते हैं इस आशयके सूत्रके दूसरे चरणका व्याख्यान करते हैं-उन नौमेंसे सत्ताईससे लेकर इक्कीस तकके छ संक्रमस्थान तो श्रेणि पर नहीं चढ़नेके पूर्व ही प्रकृत वेदके उदयमें प्राप्त होते हैं। तथा इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले उपशामक जीवके आनुपूर्वी संक्रमके आश्रयसे बीस प्रकृतिक संक्रमस्थान भी यहां पाया जाता है। फिर नपुंसकवेदके उदयसे श्रेणिपर चढ़े हुए क्षपक जीवके आठ कषायोंका क्षय हो जानेसे तेरह १. ता०प्रतौ -वेदस्स मग्गणाए इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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