Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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१२८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ चेव कायव्वा । णवरि पमत्तापमत्तापुव्वकरणोवसामगगुणट्ठाणेसु असंजदसम्मादिडिट्ठाणे च जहाकम तदुभयसंभवो त्ति वत्तव्यं, णव-सत्तारसविहबंधएसु तेसु चउवीससंतकम्मिएसु तदुभयाधारतेवीससंकममुप्पत्तीए णाइयत्तादो । एवमेदेसु पंचसु पडिग्गहट्ठाणेसु तेवीससंकमट्ठाणणियमो त्ति जाणावणटुं पंचग्गहणमेत्थ कयं । एत्थेव विसेसंतरपदुप्पायणटुं 'पंचिंदिएसु' तिं वयणं । तेण पंचिंदिएसु चेव तेवीससंकमो णाण्णत्थे त्ति घेत्तव्वं । तत्थ वि सण्णिपंचिंदिएसु चेव णासण्णीसु । कुत एतत् ? व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तेः ।
___ एवं पंचमगाहाए अत्थो समत्तो। $ २८८. 'चोद्दसय-दसय-सत्तय०'-एदेसु चदुसु पडिग्गहट्ठाणेसु वावीससंकमणियमो दट्टव्यो त्ति गाहापुव्वद्धे संबंधो । कथमेदेसि संभवो त्ति उत्ते उच्चदे-संजदासंजदस्स दंसणमोहक्खवणमब्भुट्टिय णिस्सेसीकयमिच्छत्तकम्मस्स सम्मामिच्छत्रेण विणा प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानके आश्रयसे तेईस प्रकृतिक संक्रमस्थानके होनेमें कोई बाधा नहीं आती है। ग्यारह प्रकृतिक और उन्नीस प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानोंमें प्रकृत संक्रमस्थानकी योजना इसी प्रकार करनी चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण उपशामक इन तीन गुणस्थानोंमें तथा असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें क्रमसे वे दोनों सम्भव हैं ऐसा यहाँ कथन करना चाहिये, क्योंकि जो नौ और सत्रह प्रकृतियोंका बन्ध कर रहे हैं और जिनके चौबीस प्रकृतियोंकी सत्ता है उनके इन दोनों प्रतिग्रहस्थानोंके आश्रयसे तेईस प्रकृतिक संक्रमस्थानकी उत्पत्ति मानना सर्वथा न्याय संगत है। इस प्रकार इन पाँच प्रतिग्रहस्थानों में तेईस प्रकृतिक संक्रमस्थानका नियम है यह जतानेके लिये गाथामें 'पंच' पदका ग्रहण किया है । तथा यहीं पर दूसरी विशेषताका कथन करनेके लिये पंचिंदिएसु, वचन दिया है। इससे यह तेईस प्रकृतिक संक्रमस्थान 'पंचिंन्द्रियोंके ही होता है अन्यके नहीं ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये । उसमें भी संज्ञी पंचेन्द्रियोंके ही होता है असंज्ञियोंके नहीं होता इतना विशेष जानना चाहिये ।
शंका-यह कैसे जाना ?
समाधान व्याख्यानसे विशेषका ज्ञान होता है, यह नियम है। तदनुसार प्रकृतमें भी यह तेईस प्रकृतिक संक्रमस्थान संज्ञियोंके ही होता है असंज्ञियोंके नहीं होता यह विशेष जाना जाता है।
विशेषार्थ- इस पांचवी गाथामें तेईस प्रकृतिक संक्रमस्थानका २२, १९, १५, ११ और ७ प्रकृतिक पाँच प्रतिग्रहस्थानोंमें संक्रम होता है यह बतलाया गया है। उसमें भी यह संक्रमस्थान संज्ञियोंके ही होता है अन्यके नहीं होता इतना विशेष जानना चाहिये।
इस प्रकार पाँचवीं गाथाका अर्थ समाप्त हुआ। ६२८८. अब 'चोदसय-दसय-सत्तयः' इस छठी गाथाका अर्थ कहते हैं-चौदह, दस, सात और अठारह इन चार प्रतिग्रहस्थानों में बाईस प्रकृतिक संक्रमका नियम जानना चाहिये यह इस गाथाके पूर्धिका तात्पर्य है। इनका यहाँ कैसे सम्भव है ऐसा पूछनेपर कहते हैं-दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके लिये उद्यत होकर जिसने मिथ्यात्वका क्षय कर दिया है उस संयतासंयतके
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