Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
View full book text
________________
१४९
गा०४२]
मग्गणट्ठाणेसु संकमट्ठाणपरूवणा तत्थासंभवादो। तहा विदियगुणट्ठाणे पारिणामियभावपरिणदे पणुवीसेकवीससंकमट्ठाणाणि २५, २१, इगिवीसपडिग्गहट्ठाणं च होइ २१ । एदीए दिसाए सेसगुणट्ठाणेसु वि पयदमग्गणा समयाविरोहेण कायव्या। एदेण सामित्तणिद्देसो वि सूचिदो दट्ठव्वो, गुणट्ठाणवदिरेगेण सामित्तसंबंधारिहाणमण्णेसिमणुवलद्धीदो। तदो चेव तदणंतरपरूवणाजोग्गस्स कालाणुगमस्स सेसाणियोगदाराणं देसामासियभावेण परूवणाचीजमिदमाह'समाणणा वाध केवचिरं' केवचिरं कालमेक्केकस्स संकमट्ठाणस्स समाणणा होइ किमेगसमयं दो वा समए इच्चादिकालविसेसावेक्खमेदं पुच्छासुत्तमिदि घेत्तव्वं ॥१५॥
३०१. एवमेदाओ दो गाहाओ गुणट्ठाण-मग्गणट्ठाणेसु संकम-पडिग्गह-तदुभयट्ठाणपरूणाए तप्पडिबद्धसामित्तादिअणियोगद्दाराणं च बीजपदभूदे परूविय संपहि मग्गणट्ठाणेसु जत्थतत्थाणुपुबीए संकमट्ठाणाणमुवरिमसत्तगाहाहिं मग्गणं कुणमाणो तत्थ ताव पढमगाहाए गदिमग्गणाविसए संकमट्ठाणाणमियत्तावहारणं कुणइ-णिरयगइ-अमर-पंचिंदिएसु०' एदिस्से गाहाए पुव्वद्धेण णिरय-देवगइ-पंचिंदियतिरक्खेसु पंचण्हं संकमट्ठाणाणं संभवावहारणं कयं दट्ठव्वं । काणि ताणि पंच संकमट्ठाणाणि ? सत्तावीसछब्बीस-पणुवीस-तेवीस-इगिवीससण्णिदाणि-२७, २६, २५, २३, २१ । कथमेत्थ अन्य प्रतिग्रहस्थान सम्भव नहीं हैं। तथा पारिणामिक भावरूप दूसरे गुणस्थानमें पच्चीस और इक्कीस प्रकृतिक २५,२१ ये दो संक्रमस्थान और इक्कीस प्रकृतिक २१ एक प्रतिग्रहस्थान होता है। शेष गुणस्थानोंमें भी इसी प्रकार यथाविधि प्रकृत विषयका विचार कर लेना चाहिये । इस कथनसे स्वामित्वका निर्देश भी सूचित हुआ जानना चाहिये, क्योंकि गुणस्थानोंके सिवा स्वामित्वके योग्य अन्य वस्तु नहीं पाई जाती है। फिर इसके बाद कथन करनेके योग्य कालानुयोगद्वारका निर्देश करनेके लिये 'समाणणा वाथ केवचिरं' यह पद कहा है जो देशामर्षकरूपसे शेष अनुयोगद्वारोंको सूचित करनेके लिये बीजभूत है । एक एक संक्रमस्थानकी कितने कालतक प्राप्ति होती है। क्या एक समय तक होती है या दो समय तक होती है इत्यादि रूपसे कालविशेषकी अपेक्षा रखनेवाला यह पृच्छासूत्र जानना चाहिये ।।१५।।।
विशेषार्थ-इस गाथामें संक्रमस्थानों और प्रतिग्रहस्थानोंके स्वामी व कालके जान लेनेकी तो स्पष्ट सूचना की है किन्तु शेष अनुयोगद्वारों की सूचना नहीं की है। तथापि यह सूत्र देशामर्षक है अतः उनका सूचन हो जाता है।
३०१. इस प्रकार गुणस्थानों और मार्गणास्थानोंमें संक्रमस्थानों, प्रतिग्रहस्थानों और तदुभयस्थानोंके कथनसे सम्बन्ध रखनेवाली और इन संक्रमस्थान आदिसे सम्बन्ध रखनेवाले स्वामित्व आदि अनुयोगद्वारोंके बीजभूत इन दो गाथाओंका कथन करके अब मार्गणास्थानों में यत्रतत्रानुपूर्वी के हिसाबसे आगेकी सात गाथाओं द्वारा संक्रमस्थानोंका विचार करते हुए उसमें भी सर्व प्रथम गाथाद्वारा गतिमार्गणामें संक्रमस्थानोंके प्रमाणका निश्चय करते हैं-'णिरयगइ. अमर-पंचिदिएसु०' इस गाथाके पूर्वार्धद्वारा नरकगति, देवगति और पंचेन्द्रिय तिर्य चोंमें पाँच संक्रमस्थान सम्भव हैं यह बतलाया गया है।
शंका-वे पाँच संक्रमस्थान कौनसे हैं ?
समाधान-सत्ताईस, छब्बीस, पच्चीस, तेईस, और इक्कीस ये पाँच संक्रमस्थान हैं२७, २६, २५, २३, २१।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org