Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ $ २९२. 'पंच चउक्के बारस.' एसा दसमगाहा १२, ११, १०, ९ चउण्हमेदेसि संकमट्ठाणाणं पडिग्गहट्ठाणपरूवट्ठमागया। तत्थ पढमावयवेण बारससंकमट्ठाणस्स पंच-चदुक्कसण्णिदपडिग्गहट्ठाणेसु संभवावहारणं कीरदे, इगिवीससंतकम्मियखवगोवसामगेसु जहाकम लोभासंकम-छण्णोकसायोवसामणपरिणदेसु तहाविहसंभवोवलंभादो । 'एक्कारस पंचगे' एदेण च विदियावयवेण पंच-तिग-चदुक्कसण्णिदेसु तिसु पडिग्गहट्ठाणेसु एक्कारसपयडिसंकमस्स विसयावहारणं कीरदे । तं कधं ? खवगस्स णवंसयवेदे खीणे पंचपडिग्गहट्ठाणाहारमेक्कारससंकमट्ठाणमुप्पज्जइ । अहवा चउवीसदिकम्मसिएण दुविहकोहोवसमं काऊण कोहसंजलणपडिग्गहवोच्छेदे कदे तमेव संकमट्ठाणं तेणेव पडिग्गहट्ठाणेण पडिग्गहिदमुवजायदे, तत्थ माण-माया-लोहसंजलण-सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणं कोहसंजलण-तिविहमाण-तिविहमाय-दुविहलोभ-मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्तसमूहारद्वपयदसंकमट्ठाणस्साहारभावोवलंभादो । पुणो इगिवीससंतकम्मिओवसामगेण यहां एक बातका निर्देश कर देना आवश्यक प्रतीत होता है। बात यह है कि यहां अठारह प्रकृतिक संक्रमस्थानका चार प्रकृतिक एक प्रतिग्रहस्थान बतलाया है किन्तु कर्मप्रकृतिमें १८ प्रकृतिक संक्रमस्थानके ५ और ४ ये दो प्रतिग्रह स्थान बतलाये हैं। २१ प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवके भानुपीं संक्रमका प्रारम्म हो जानेके बाद नपुंसकवेद और स्त्रीवेदका उपशम हो जानेपर यह अठारह प्रकृतिक संक्रमस्थान हेता है। तब कषायप्राभृत के अनुसार पुरुषवेद प्रतिग्रह प्रकृति नहीं रहती, अतः चार प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान ही प्राप्त होता है किन्तु कर्मप्रकृतिके अनुसार उसमें जब तक छह नोकषायोंका संक्रम होता रहता है तब तक पांच प्रकृतिक और उसके बाद चार प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान प्राप्त होता है । इस प्रकार मतभेदका यह कारण जानना चाहिये ।।
२९२. 'पंच-चउक्के बारस.' यह दसवीं गाथा १२, ११, १० और ९ इन चार संक्रमस्थानोंके प्रतिग्रहस्थानोंका कथन करनेके लिये आई है। वहां गाथाके प्रथम चरणद्वारा बारह प्रकृतिक संक्रमस्थानके पांच प्रकृतिक और चार प्रकृतिक ये दो प्रतिग्रहस्थान सम्भव हैं यह अवधारण किया गया है, क्योंकि जो क्षपक आनुपूर्वी संक्रमका प्रारम्भ हो जानेके कारण लोभसंज्वलनका संक्रम नहीं कर रहा है उसके बारह प्रकृतिक संक्रमस्थानका पांच प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान उपलब्ध होता है और इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जो उपशामक छह नोकषायोंका उपशमन कर रहा है उसके बारह प्रकृतिक संक्रमस्थानका चार प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान उपलब्ध होता है। 'गाथाके एक्कारस पंचगे.' इस दूसरे चरण द्वारा यह निश्चय किया गया है कि ग्यारह प्रकृतिक संक्रमस्थानका पांच, चार और तीन प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानों में संक्रम होता है, क्योंकि क्षपक जीवके नपुंसकवेदका क्षय कर देने पर ग्यारह प्रकृतिक संक्रमस्थानका आधारभूत पांच प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान उत्पन्न होता है। अथवा चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जो उपशामक जीव दो प्रकारके क्रोधका उपशम करके क्रोध संज्वलनकी प्रतिग्रह व्युच्छित्ति कर देता है उसके उसी पूर्वोक्त प्रतिग्रहस्थानसे सम्बन्ध रखनेवाला वही पूर्वोक्त संक्रमस्थान उत्पन्न होता है, क्योंकि वहाँ पर क्रोधसंज्वलन, तीन मान, तीन माया, दो लोभ, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व इनके समूह रूप प्रकृत संक्रमस्थानका आधारभूत मान संज्वलन, माया संज्वलन, लोभ संज्वलन, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन पाँच प्रकृतिरूप प्रतिग्रहस्थान उपलब्ध होता है। तथा इक्कीस प्रकृतियोंकी
१. प्रा०प्रतौ -पंजलणस्स सम्मत्त- इति पाठः । २. ता०प्रतौ सम्मत्तसम्माइट्ठीणं इति पाठः ।
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