Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
View full book text
________________
गा० ३५-३६] संकमट्ठाणाणं पडिग्गहट्ठाणणिदेसो बढेऊणवीससंकमट्ठाणोवलंभादो । 'अट्ठारस चदुसु०' एसो सुत्तस्स विदियावयवो अट्टारसपयडिसंकमस्स चदुसु पडिग्गहपयडीसु संभवावहारणफलो, तेणेवित्थिवेदोवसमं करिय पुरिसवेदपडिग्गहवोच्छेदे कदे चउसंजलणपयडिपडिबद्धे पयदसंकमट्ठाणोवलंभादो। 'चोदस छसु०' एदेण वि सुत्तस्स तइजावयणेण चोदससंकमट्ठाणस्स छसु पयडीसु पडिबद्धत्तं परूविदं, चउवीससंतकम्मियाणियट्टिउवसामयस्स पुरिसवेदणवकबंधोवसामणावत्थाएं चउसंजलण-दोदंसणमोहसण्णिदछप्पयडिपडिग्गहेण पुरिसवेदेकारसकसाय-दोदंसणमोहपयडि पडिबद्धचोदससंकमट्ठाणोवलंभादो । 'तेरसयं छक्कपणगम्हि' एदेण वि चउत्थावयवेण तेरससंकमट्ठाणस्स छक्क-पणएसु णिबंधणतं परूविदं । तत्थ ताव समणंतरपरू विदचोदससंकामएण पुरिसवेदोवसमे कदे तेरसपयडिसंकमो छप्पयडि पडिग्गहसंबंधिओ समुप्पजइ, पुवुत्तपडिग्गहपयडीणं छण्हं पि तत्थ तहावट्ठाणदंसणादो। एदस्स चेत्र कोहसंजलणपढमट्ठिदीए तिसु आवलियासु समयूणासु सेसासु तेरससंकमट्ठाणं पंचपयडिपडिग्गहियमुप्पाइ । अथवा अणि यट्टिखवगेण अट्ठकसाएसु खविदेसु पंचपडिग्गहट्ठाणसंबंधियं तेरससंकमट्ठाणमुवलब्भइ ।।९।।
.
चो
गाथाका दूसरा पद अठारह प्रकृतिक संक्रमस्थानका चार प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानमें संक्रम होता है यह अवधारण करानेके लिए दिया है, क्योंकि वही पूर्वोक्त जीव जब स्त्रीवेदका उपशम
आ है तब उसके चार संज्वलनरूप प्रतिहग्रस्थानसे सम्बन्ध रखनेवाला प्रकृत संक्रमस्थान उपलब्ध होता है। गाथाके 'चोदस छसु०' इस तीसरे चरण द्वारा भी चौदह प्रकृतिक संक्रमस्थान छह प्रतिग्रह प्रकृतियोंसे प्रतिबद्ध है यह बतलाया है, क्योंकि
तियोंकी सत्तावाले अनिवत्तिकरण उपशामकके परुषवेदके नवकबन्धकी उपशामना करते समय चार संज्वलन और दो दर्शनमोहनीय इन छह प्रकृतियों के प्रतिग्रहरूपसे पुरुषवेद, ग्यारह कषाय और दो दर्शनमोहनीय प्रकृतियोंसे सम्बन्ध रखनेवाला चौदह प्रकृतिक संक्रमस्थान उपलब्ध होता है। गाथाके 'तेरसयं छक्क-पण गम्हि' इस चौथे चरण द्वारा भी तेरह प्रकृतिक संक्रमस्थान छह और पाँच प्रतिग्रह प्रकृतियों में प्रतिबद्ध है यह बतलाया है। यहाँपर समनन्तर पूर्व कह गये चौदह प्रकृतियोंके संक्रामक जीवके द्वारा पुरुषवेदका उपशम कर लेने पर छह प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानसे सम्बन्ध रखनेवाला तेरह प्रकृतिक संक्रमस्थान उत्पन्न होता है, क्योंकि पूर्वोक्त छह प्रतिग्रह प्रकृतियाँ इस तेरह प्रकृतिक संक्रमस्थानके समय पूर्ववत् अवस्थित देखी जाती हैं। तथा इसी जीवके जब क्रोध संचलनकी प्रथम स्थितिमें एक समय कम तीन आवली काल शेष रह जाता है तब पांच प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानसे सम्बन्ध रखनेवाला तेरह प्रकृतिक संक्रमस्थान उत्पन्न होता है। अथवा अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवती क्षपकके द्वारा आठ कषायोंका क्षय कर देने पर पांच प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानसे सम्बन्ध रखनेवाला तेरह प्रकृतिक संक्रमस्थान प्राप्त होता है ॥६॥
विशेषार्थ- इस गाथामें १९, १८, १४ और १३ इन चार संक्रमस्थानों का किस किस प्रतिग्रहस्थानमें संक्रम होता है यह बतलाया है। विशेष खुलासा टीकामें किया ही है । किन्तु
१. ता० -श्रा प्रत्योः -सामणाबद्धाए इति पाठः।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org