Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० ३७ ]
संकट्ठाणाणं पडिग्गहट्ठाणणिदेसो
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संभवो दट्ठव्वो । 'छक्कं दुगम्हि नियमा' - छण्हं संकमो णियमा दुगम्हि पडिबद्धो बोद्धव्वो, एकावीसदिकम्मंसियस्स दुविहमाणोवसममस्सियूण तदुवलद्धीदो | 'पंच तिगे एक्कग दुगे वा' - पंचकमो तिगे दुगे एकगे वा होइ ति सुत्तत्थ संबंधो । तत्थ ताव चवीससंतकम्मिएण दुविहमायोवसमे कदे मायासंजलण- दुविहलोह-मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्तपंचपयडिसंकमो लोहसंजलण-सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ततिविहपडिग्गहावेक्खो समुपञ्जदि । पुणो इगिवीससंतकम्मियोवसामगेण तिविहमाणोवसमे कदे तिविहमायदु विहलोहस णिदपंचपयडिसंकमो माया - लोहसंजलणदुविहपडिग्गहड्डाणावलंबणो समुप्पञ्जइ । एदस्स चेव मायासंजलणपढमट्टिदीए समयूणावलियतियमेत्तावसेसे दुविहं मायमसंकामियं लोहसंजल णम्मि संछुहमाणस्स एगपयडिपडिग्गहपडिबद्धो पंचपयडिट्ठाणसंकमो होइ ।। ११।।
९ २९४. ' चत्तारि तिग- चदुक्के० ' एसा बारसमी गाहा ४, ३, २, १ चदुण्हमेदेसिं संकमट्ठाणाणं पडिग्गहणियमपरूवणट्टमागया । एदिस्से पढमावयवो चदुपयडिसंकमस्स तिग-चदुक्के पडिबद्धत्तं परूवेदि, खवगस्स छण्णोकसायपरिक्खए चदुण्हं
प्रतिग्रहस्थानका सद्भाव जानना चाहिये । 'छक्कं दुगम्हि नियमा' यह गाथाका तीसरा चरण है । इस द्वारा छह प्रकृतियों का संक्रम नियमसे दो प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान से सम्बन्ध रखनेवाला जानना चाहिए, क्योंकि इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवके दो प्रकारके मानके उपशमका आश्रय लेकर उक्त संक्रम व प्रतिग्रहस्थानकी उपलब्धि होती है । 'पंच तिगे एक्कग दुगे वा' यह गाथाका चौथा चरण है । तीन, दो और एक प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानोंमें पांच प्रकृतियोंका संक्रम होता है यह इस सूत्रवचनका तात्पर्य है । उसमें सर्वप्रथम जो चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जीव दो प्रकारकी मायाका उपशम कर लेता है उसके लोभ संज्वलन, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इस तीन प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान से सम्बन्ध रखनेवाला मायासंज्वलन, दो प्रकारका लोभ, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व यह पांच प्रकृतिक संक्रमस्थान उत्पन्न होता है। तथा इक्कीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जो उपशामक जीव तीन प्रकारके मानका उपशम कर देता है उसके माया संज्वलन और लोभ संज्वलन इस दो प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानसे सम्बन्ध रखनेवाला तीन प्रकारकी माया और दो प्रकारका लोभ यह पाँच प्रकृतिक संक्रमस्थान उत्पन्न होता है । तथा यही जीव जब माया संज्वलनकी प्रथम स्थिति में एक समय कम तीन आवलि काल शेष रहने पर दो प्रकारकी मायाका माया संज्वलन में संक्रम न करके लोभ संज्वलन में संक्रम करने लगता है तब एक प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान से सम्बन्ध रखनवाला पाँच प्रकृतिक संक्रमस्थान उत्पन्न होता है ॥ ११ ॥
विशेषार्थ -- इस गाथा में आठ प्रकृतिक, सात प्रकृतिक, छह प्रकृतिक और पाँच प्रकृतिक इन चार संक्रमस्थानोंके कौन कौन प्रतिग्रहस्थान हैं यह बतलाया है । विशेष खुलासा टीकामें किया ही है ।
$ २९४. 'चत्तारि तिग चदुक्के० ' यह बारहवीं गाथा ४, ३, २ और १ इन चार संक्रमस्थानोंके प्रति ग्रहस्थानोंके नियमका कथन करनेके लिये आई है । इस गाथाका प्रथम चरण चार प्रकृतिक संक्रमस्थानका तीन और चार प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थानोंसे सम्बन्ध है यह बतलाती है, क्योंकि
१. ता० प्रती मायमो (म) संकामिय, ०प्रतौ मायमोसं कामिय इति पाठः । १८
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