Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
View full book text
________________
-
-
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६ $ २९५. एवमेत्तिएण गाहासुत्तसंबंधेण संकमट्ठाणाणं पडिग्गहट्ठाणेसु णियमं कादृण संपहि तं मग्गणोवायभूदाणमत्थपदाणं परूवणट्ठमुत्तरंगाहामुत्तमोइण्णं-'अणुपुव्वमणणुपुव्वं'-पयडिट्ठाणसंकमे परूवणिज्जे पुव्वमेव इमे संकमट्ठाणाणं मग्गणोवाया अणुगंतव्वा, अण्णहा तव्विसयणिण्णयाणुप्पत्तीदो। के ते ? अणुपुव्वं अणणुपुव्वमिच्चादओ। तत्थाणुपुव्विसंकमो एको, अणाणुपुचिसंकमो विदिओ, दंसणमोहस्स खयमस्सियूण तदियो, तदक्खयमवलंबिय चउत्थो, चरित्तमोहोवसामगविसए पंचमो, चरित्तमोहक्खवणणिबंधणो छट्ठो एवमेदे संकमट्ठाणाणं मग्गणोवाया णादव्वा भवति । एदेहि पुव्वुत्तसंकमट्ठाणाणं पडिग्गहट्ठाणाणमुप्पत्ती साहेयव्वा त्ति उत्तं होइ ।
६२९६. एत्थाणुपुव्वीसंकमविसए संकमट्ठाणगवेसणे कीरमाणे चउवीससंतकम्मियोवसामगस्स ताव वावीस-इगिवीसादओ पुव्वुत्तकमेणाणुमग्गिदव्वा । तेसिं पमाणमेदं–२२, २१, २०,१४, १३, ११, १०, ८,७, ५, ४, २ । इगिवीससंतकम्मियस्स
m सत्तास्था० | संक्रमस्था० प्रकृतियां प्रतिग्रहस्था० प्रकृतियां । स्वामी २४ प्र० । २ प्र० | मिथ्यात्व व २ प्र० सम्यक्त्व व
सांपराय सम्यग्मिथ्यात्व
सम्यग्मिथ्यात्व | व उपशांतमोह
उपशामक | २ प्र० । १ प्र० | संज्वलन माया | १ प्र० । संज्वलन लोभ | क्षपक अनिवृत्ति
६२९५. इस प्रकार इतने गाथासूत्रोंके सम्बन्धसे संक्रमस्थानोंका प्रतिग्रहस्थानों में नियम करके अब इस नियमका अन्वेषण करनेके उपायभूत अर्थपदोंका कथन करनेके लिये आगेका गाथासूत्र आया है-'अणुपुरमणणुपुव्वं प्रकृतिस्थानोंके संक्रमका कथन करते समय सर्व प्रथम संक्रमस्थानोंके अन्वेषणके ये उपाय जानना चाहिये, अन्यथा उनका समुचित निर्णय नहीं किया जा सकता है।
शंका–वे अन्वेषण करनेके उपाय कौनसे हैं ?
समाधान-आनुपूर्वी और अनानुपूर्वी इत्यादिक। उनमेंसे आनुपूर्वीसंक्रम यह प्रथम उपाय है, अनानुपूर्वीसंक्रम यह दूसरा उपाय है, दर्शनमोहके क्षयके आश्रयसे प्राप्त होनेवाला तीसरा उपाय है, दर्शनमोहके क्षयके न होनेसे सम्बन्ध रखनेवाला चौथा उपाय है, चारित्रमोहनीय की उपशमनाको विषय करनेवाला पाँचवां उपाय है और चारित्रमोहकी क्षपणाके निमित्तसे होनेवाला छठा उपाय है। इस प्रकार ये संक्रमस्थानोंके अनुसंधान करनेके उपाय जानने चाहिये। इनके द्वारा पूर्वोक्त संक्रमस्थानों और प्रतिग्रहस्थानोंकी उत्पत्ति साध लेनी चाहिये वह उक्त कथनका तात्पर्य है।
६ २९६. अब यहाँपर आनुपूर्वीसंक्रम विषयक संक्रमस्थानोंका अन्वेषण करने पर चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले उपशामकके पूर्वोक्त क्रमसे २२, २१ आदि प्रकृतिक संक्रमस्थान जानना चाहिये । उनका प्रमाण यह है-२२, २१, २०, १४, १३, ११, १०,८, ४, ५, ४ और २ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org