Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे विसंजोइदाणताणुबंधीचउ केण
[ बंधगो ६ दंसणमोहक्खवणमन्भुट्टिय
$ २३४. तेणेव
मिच्छत्ते खविदे इगिवीसकसाय सम्मामिच्छत्तपयडीओ घेत्तृणेदं संकमडाणमुप्पञ्जड़ ति
उ हो ।
* हवा चउवीसदिसंतकम्मियस्स आणुपुव्वीसंकमे कदे जाव एवं सयवेदो व संतो ।
$ २३५. 'चउवीससंतकम्मिय' वयणं सेससंतकम्मियपडिसेहफलं, तत्थ पयदसंकमट्ठाणसंभवाभावादो | 'आणुपुव्वीसंकमे कदे' त्ति वयणमणाणुपुव्वीसंकमपडिसेहहूं, तस्स पयदविरोहित्तादो । तत्थ वि णवंसयवेदे अणुवसंते चैव पयदसंकमट्ठाणमुप्पजइ त्ति जाणावणङ्कं णबुंसय वेदे अणुवसंते त्ति भणिदं । तम्मि उवसंते पयदसंकमणादो
माणस्स समुप्पत्तिदंसणादो । ओदरमाणस्स चवीस संतकम्मियस्स इत्थवेदे ओकडिदे जाव णjसयवेदो अणोकडिदो ताव पयदट्ठाण संभवो अस्थि । णवरि सो एत्थ विवक्खिओ, चढमाणस्सेव पहाणभावेणावलंवियत्तादो ।
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६ २३४. जिसने अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना की है ऐसा जीव दर्शनमोहनीयकी क्षणा के लिये उद्यत होकर जब मिध्यात्वका क्षय कर देता है तब इस कषाय और सम्यग्मिथ्यात्व इन प्रकृतियोंको लेकर यह संक्रमस्थान उत्पन्न होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । विशेषार्थ - यद्यपि मिध्यात्यकी क्षपणाके बाद सत्ता तेईस प्रकृतियोंकी होती है तथापि सम्यग्दृष्टि सम्यक् संक्रमके अयोग्य होनेसे संक्रम बाईस प्रकृतियों का ही होता है यह उक्त सू का अभिप्राय है ।
* अथवा चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवके आनुपूर्वी संक्रमका प्रारम्भ करने पर जब तक नपुंसकवेदका उपशम नहीं होता है तब तक बाईस प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है |
९ २३५ सूत्र में जो 'चवीस संतकम्मिय' यह वचन दिया है सो इसका फल शेष सत्कर्मस्थानोंका निषेध करना है, क्योंकि उनके सद्भावमें प्रकृत संक्रमस्थान नहीं हो सकता है । सूत्रमें 'आणुपुवीसंकमेकदे' यह वचन अनानुपूर्वी संक्रमका प्रतिषेध करनेके लिये आया है, क्योंकि वह प्रकृतका विरोधी है । उसमें भी नपुंसकवेदका उपशम न होने पर ही प्रकृत संक्रमस्थान उत्पन्न होता है यह बताने के लिये 'व' सयवेदे अणुवसंते' यह कहा है, क्योंकि नपुंसकवेदका उपशम हो जाने पर प्रकृत संक्रमस्थानसे नीचेके स्थानकी उत्पत्ति देखी जाती है । उपशमश्रेणिसे उतरते समय चौबीस प्रकृतियों की सत्तावाले जीवके स्त्रीवेदका आकर्षण होकर जब तक नपुंसकवेदका अपकर्षण नहीं होता है तब तक प्रकृत स्थान सम्भव है, किन्तु वह यहाँ विवक्षित नहीं है, क्योंकि उपशमश्रेणि पर चढ़नेवाला जीव ही प्रधानरूपसे यहाँ स्वीकार किया गया है।
विशेषार्थ — उपशमश्रेणिमें यह बाईस प्रकृतिकसंक्रमस्थान दो प्रकार से बतलाया है । यथा-उपशमश्रेणि पर चढ़ते समय चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जिस जीवने अन्तरकरण करने के बाद पूर्वी संक्रमका प्रारम्भ कर दिया है उसके जब तक नपुंसकवेद्का उपशम नहीं होता है तब तक यह बाईस प्रकृतिक संक्रमस्थान प्राप्त होता है । यद्यपि इस जीव के सत्ता इक्क स कषाय और तीन दर्शनमोहनीय इन चौबीस प्रकृतियोंकी है तथापि इनमेंसे सम्यक्त्व और संज्वलन
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