Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २८ पयडिट्ठाणपडिग्गहापडिग्गहपरूवणा
११६ ६ २८१. संपहि उवसमसेढीए चउवीससंतकम्मियमस्सिऊण पडिग्गहट्ठाणाणमुप्पत्तिं वत्तइस्सामो । तं कधं ? चउवीससंतकम्मियस्स उवसमसेटिं चढिय अणियट्टि गुणट्ठाणम्मि पंचविहं बंधमाणस्स सत्तपयडिपडिग्गहो होइ, तत्थ चउसंजलण-पुरिसवेदसम्मत्त-सम्मामिच्छत्तसमूहस्स तेवीस-बावीस-इगिवीससंकमाणं पडिग्गहत्तदंसणादो । एदेणेव णवंस-इत्थिवेदमुवसामिय पुरिसवेदपडिग्गहवोच्छेदे कदे छप्पयडिपडिग्गहो होइ, चदुसंजलण दोदंसणमोहपयडीणमेत्थ वीसाए संकमस्साहारभावोवलंभादो। एत्थेव छण्णोकसाय-पुरिसवेदाणं जहाकममुवसमेण चोदस-तेरससंकमट्ठाणाणमुवलंभादो च । पुणो वि एदेण दुविहकोहोवसमं काऊण’ कोहसंजलणपडिग्गहविणासे कए पंचपयडिपडिग्गहट्ठाणमेकारससंकमाहारभूदमुप्पजदि । एत्थेव कोहसंजलणोवसममस्सिऊण दससंकमाहारं तं चेव पडिग्गहट्ठाणं होदि । तेणेव दुविहमाणमुवसामिय माणसंजलणपडिग्गहवोच्छेदे कदे चउपयडिपडिबद्धमट्ठपयडिसंकमाहारभूदं पडिग्गहट्ठाणं होइ । एत्थेव माणसंजलणोवसमे कदे सत्तपयडिसंकमपडिबद्धं तं चेव पडिग्गहट्ठाणं होदि । तेणेव दुविहमायोवसमेण मायासंजलणपडिग्गहवोच्छेदे कदे लोभसंजलण-दोदंसणमोहपयडिपडिबद्धं तिण्हं पडिग्गहट्ठाणं पंचपयडिसंकमावेक्खं मायासंजलणोवसमेण चदुपयडि" प्रकृतिक और प्रकृतिक ये दो प्रतिग्रहस्थान बतलाये हैं। यहाँ दर्शनमोहनीयकी क्षपणा न होनेसे १० प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान सम्भव नहीं है ।
२८१. अब उपशमश्रेणिमें चौबीस प्रकृतिक सत्त्वस्थानकी अपेक्षा प्रतिग्रहस्थानोंकी उत्पत्ति बतलाते हैं । यथा-जो चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला उपशमश्रेणि पर चढ़कर अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें पाँच प्रकृतियोंका बन्ध करता है उसके सात प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान होता है, क्योंकि वहाँ पर चार संज्वलन, पुरुषवेद, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन सात प्रकृतियोंके समुदायमें तेईस, बाईस और इक्कीस प्रकृतियोंके संक्रमका प्रतिग्रहपना देखा जाता है। तथा जब यही जीव स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका उपशम करके पुरुषवेदकी प्रतिग्रहव्युच्छित्ति कर देता है तब छह प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान होता है, क्योंकि यहांपर चार संज्वलन
और दो दर्शनमोहनीय ये छह प्रकृतियां बीस प्रकृतियोंके संक्रमके आधाररूपसे उपलब्ध होती हैं। फिर जब यह जीव इन बीस प्रकृतियोंमेंसे छह नोकषाय और पुरुषवेदको क्रमसे उपशमा देता है तब चौदह और तेरह प्रकृतिक संक्रमस्थान उपलब्ध होते हैं। फिर भी जब यह जीव दो प्रकारके क्रोधको उपशमा देता है तब क्रोधसंज्वलन प्रतिग्रह प्रकृति न रह कर ग्यारह प्रकृतिक संक्रमस्थानका आधारभूत पांच प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान उत्पन्न होता है। फिर यहीं पर क्रोधसंज्वलनका उपशम कर लेनेपर दस प्रकृतिक संक्रमस्थानका आधारभूत वही प्रतिग्रहस्थान होता है। फिर जब यही जीव दो प्रकारके मानका उपशम करके मानसंज्वलनकी प्रतिग्रहव्युच्छित्ति कर देता है तब आठ प्रकृतिक संक्रमस्थानका आधारभूत चार प्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान उत्पन्न होता है । फिर यहीं पर मानसंचलनका उपशम कर लेनेपर सात प्रकृतिक संक्रमस्थानसे सम्बन्ध रखनेवाला वही प्रतिग्रहस्थान होता है। फिर जब वही जीव दो प्रकारकी मायाका उपशम करके मायासंघलनकी प्रतिग्रहध्युच्छित्ति कर देता है तब पांच प्रकृतियोंके संक्रमकी अपेक्षा रखनेवाला या मायासंचलनका उपशम हो जानेपर चार प्रकृतियोंके संक्रमकी अपेक्षा रखनेवाला लोभसंचलन और दो दर्शनमोहसम्बन्धी तीन प्रकृतिक
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