Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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११८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६ मिच्छत्ते खविदे सम्मामिच्छत्तेण विणा चोदसपडिग्गहट्ठाणं होदि। एदेणेव सम्मामिच्छत्ते खविदे सम्मत्तेण विणा तेरसपडिग्गहो होइ, जहाकममेदेसु वावीस-इगिवीसपयडीणं संकमदंसणादो।
____२७९. पमत्तापमत्ताणमेक्कारस० पडिग्गहो होइ, तब्बंधपयडीसु पुव्वं व सत्तावीसछव्वीस-तेवीससंकमट्ठाणाणं पडिग्गहभावेण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं पवेसिदत्तादो । एत्थेव मिच्छत्तं खइय सम्मामिच्छत्तपडिग्गहे णासिदे दसपडिग्गहो होइ। तेणेव सम्मामिच्छत्तं खड़य सम्मत्तं पडिग्गहाभावे कदे णवपयडिपडिग्गहट्ठाणं होइ, जहाकममेदेसु वावीस-इगिवीसपयडीणं संकमदंसणादो।
$ २८०. अपुव्वकरणगुणट्ठाणम्मि एक्कारस वा णव वा तेवीस-इगिवीससंकमणाणमाहारभावेण पडिग्गहा होति, तत्थ पयारंतासंभवादो। क्षय कर देने पर सम्यग्मिथ्यात्वके बिना चौदहप्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान उत्पन्न होता है। और जब यह जीव सम्यग्मिध्यात्वका भी क्षय कर देता है तब तेरहप्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान होता है, क्योंकि इन दोनों स्थानोंमें क्रमसे २२ और २१ प्रकृतियोंका संक्रम देखा जाता है।
विशेषार्थ-यहां संयतासंयतके प्रतिग्रहस्थान और संक्रमस्थान बतलाते हुए किस प्रतिग्रहस्थानमें किन संक्रमस्थानोंका संक्रम होता है इस बातका निर्देश किया गया है। अविरतसम्यग्दृष्टिके जो संक्रमस्थान बतलाये हैं वे ही संयतासंयतके होते हैं, क्योंकि सत्ता और क्षपणाकी अपेक्षासे इन दोनों गुणस्थानोंमें कोई अन्तर नहीं है। किन्तु बन्धकी अपेक्षासे संयतासंयतके चार प्रकृतियाँ कम हो जाती है। अतः १६, १८ और १७ मेंसे ४ प्रकृतियाँ कम करने पर इसके क्रमसे १५, १४ और १३ वे तीन प्रतिग्रहस्थान प्राप्त होते हैं। अब इनमेंसे किसमें कितनी प्रकृतियोंका संक्रम होता है सो यह सब कथन अविरतसम्यग्दृष्टके संक्रमस्थानोंके स्वामित्वको देखकर घटित कर लेना चाहिये।
___२७६. प्रमत्तसंयत और अनमत्तसंयतके ग्यारह प्रकृतिक प्रतग्रहस्थान होता है, क्योंकि इनकी बन्धप्रकृतियोंमें पूर्ववत् सत्ताईस, छब्बीस और तेईस प्रकृतिक सक्रमस्थानोंका प्रतिग्रहपना पाया जानेके कारण इन बन्धप्रकृतियोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दो प्रकृतियोंका प्रवेश किया गया है । जब इनके मिथ्यात्वका क्षय होकर सम्यग्मिथ्यात्व प्रतिग्रह प्रकृति नहीं रहती तब दसप्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान होता है। और जब यही जीव सम्यग्मिथ्यात्वका क्षय करके सम्यक्त्वका प्रतिग्रह प्रकृतिरूपसे अभाव कर देता है तब नौप्रकृतिक प्रतिग्रहस्थान होता है, क्योंकि इन दोनों प्रतिग्रहस्थानोंमें क्रमसे बाईस और इक्कीस प्रकृतियोंका संक्रम देखा जाता है।
विशेषार्थ-संयतासंयतके बँधनेवाली १३ प्रकृतियोंमेंसे ४ प्रकृतियाँ कम होकर इन दो गुणस्थानों में है प्रकृतियोंका बन्ध होता है, अतः यहाँ ११, १० और ६ प्रकृतिक तीन प्रतिग्रहस्थान प्राप्त होते हैं। शेष कथन सुगम है।
६२८०. अपूर्वकरण गुणस्थानमें तेईस और इक्कीस प्रकृतियों के आधारभूत ग्यारह प्रकृतिक या नौ प्रकृतिक ये दो प्रतिग्रहस्थान होते हैं, क्योंकि यहाँ पर और कोई दूसरा प्रकार सम्भव नहीं है।
विशेषार्थ-अपूर्वकरणमें २४ प्रकृतिक या २१ प्रकृतिक ये दो सत्तस्थान हाते हैं। इसीसे यहाँ २३ प्रकृतिक या २३ प्रकृतिक ये दो संक्रमस्थान और क्रमसे उनके आधारभूत
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