Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
View full book text
________________
गा० २७]
ट्ठाणसमुकित्तणा ॐ अणंताणुषंधिणो सव्वे अवणिजंति ।
$ २३१. जेण कारणेण अणंताणुबंधिणो सव्वे जुगवमवणिज्जंति तेण चउवीसाए पयडिट्ठाणस्स संकमो णस्थि त्ति सुत्तत्थसंबंधो । तेसिमक्कमेणावणयणे चउवीससंतकम्म होदूण तेवीससंकमट्ठाणमेवुप्पञ्जदि त्ति भावत्थो।
* एदेण कारणेण चउवीसाए पत्थि ।
$ २३२. एदेणाणंतरपरूविदेण कारणेण चउवीसाए णत्थि संकमो त्ति भणिदं होइ ।
8 तेवीसाए अणंताणुबंधीसु अवगदेसु ।
$ २३३. अणंताणुबंधीसु विसंजोइदेसु इगिवीसकसाय-दोदंसणमोहणीयपयडीओ घेत्तूण तेवीससंकमट्ठाणं होदि ति सुत्तत्थो।।
ॐ वावीसाए मिच्छत्ते खविदे सम्मामिच्छत्ते सेसे ।
* क्योंकि सब अनन्तानुबन्धियाँ निकल जाती हैं। ___२३१. यतः सब अनन्तानुबन्धियाँ युगपत् निकल जाती हैं अतः चौब स प्रकृतिक स्थानका संक्रम नहीं होता यह इस सूत्रका तात्पर्य है। उन चार अनन्तानुबन्धियोंके एक साथ निकल जाने पर चौबीस प्रकृतिक सत्कर्मस्थान होकर संक्रमस्थान तेईसप्रकृतिक ही उत्पन्न होता है यह उक्त कथनका भावार्थ है।
* इस कारणसे चौबीस प्रकृतिक स्थानका संक्रम नहीं होता।
६२३२. यह जो अनन्तरपूर्व कारण कह आये हैं उससे चौबीस प्रकृतिक स्थानका संक्रम नहीं होता है यह उक्त कथन का तात्पर्य है।
विशेषार्थ--चौबीस प्रकृतिकस्थान चार अनन्तानुबन्धियोंकी विसंयोजना होने पर ही प्राप्त होता है अन्य प्रकारसे नहीं। किन्तु इन चौबीस प्रकृतियोंमें दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियाँ भी सम्मिलित हैं, अतः चौबीस प्रकृतिक संक्रमस्थान नहीं होता यह कहा है।
* चार अनन्तानुबन्धियोंके अपगत होने पर तेईस प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है।
$ २३३. अनन्तानुबन्धियोंकी विसंयोजना हो जाने पर इक्कीस कषाय और दो दर्शनमोहनीय इन प्रकृतियोंको लेकर तेईस प्रकृतिकसंक्रमस्थान होता है यह इस सूत्रका अर्थ है।
विशेषार्थ-आशय यह है कि जब यह जीव चार अनन्तानुबन्धियोंकी विसंयोजना कर लेता है तब चौबीस प्रकृतियोंकी सत्ता और तेईस प्रकृतियोंका संक्रम होता है । यहाँ दर्शनमोहनीयकी दो प्रकृतियोंमेंसे मिथ्यात्व और सम्यग्मिध्यात्व ये दो प्रकृतियाँ संक्रमयोग्य ली गई हैं। किन्तु ऐसे जीवके मिथ्यात्वमें जाने पर सत्ता तो अट्ठाईसकी हो जाती है तथापि संक्रम एक आवलि काल तक तेईसका ही होता रहता है, क्योंकि तब एक आवलि काल तक चार अनन्तानुबन्धियोंका संक्रम नहीं होता ऐसा नियम है। इस अपेक्षासे यहाँ दर्शनमोहनीयकी सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये दो प्रकृतियाँ लेनी चाहिये, क्योंकि मिथ्यात्व गुणस्थानमें मिथ्यात्वका संक्रम नहीं होता ऐसा नियम है। ___* मिथ्यात्वका क्षय हो जाने पर और सम्यग्मिथ्यात्वके शेष रहने पर बाईस प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org