Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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१०४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[पंगो। 8 तेरसण्हं चउवीसदिकम्मंसियस्स पुरिसवेदे उवसंते कसाएसु अणुवसंतेसु ।
___$२५०. तस्सेव चउवीससंतकम्मियस्स चोद्दससंकामयभावेणाबह्रिदस्स पुज्बुतचोदसपयडीसु पुरिसवेदे उवसंते पयदसंकमट्ठाणमुप्पजइ, कसायाणमणुवसमे तदुप्पत्तीए विरोहाभावादो । एवं चउनीससंतकम्मियसंबंधेण तेरससंकमट्ठाणमुप्पाइय पयारंतरेणावि तदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तमाह
® खवगस्स वा अहकसाएस खविदेसु जाव प्रणाणुपुब्वीसंकमो। ... $२५१. इगिवीससंतकम्मादो अट्ठकसाएसु खविदेसु चदुसंजलण-गवणोकसायाणं संकमपाओग्गभावेण परिप्फुडमुवलंभादो। तदो चेव जाव अणाणुपुव्वीसंकमो ति उनं, आणुपुव्वीसंकमे जादे लोभसंजलणस्स संकमपाओग्गत्तविणासेण द्वाणंतरुप्पत्तिदंसणादो।
क्रोधका अपकर्षण होकर जब तक पुरुषवेद उपशान्त रहता है तब तक यह स्थान होता है। प्रथम प्रकारमें लोभसंज्वलनके सिवा ग्यारह कषाय, पुरुषवेद और दो दर्शनमोहनीय इन चौदह प्रकृतियोंका संक्रम होता रहता है । तथा दूसरे प्रकारमें बारह कषाय और दो दर्शनमोहनीय इन चौदह प्रकृतियोंका संक्रम होता रहता है। ___* चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवके पुरुषवेदके उपशान्त और कषायोंके अनुपशान्त रहते हुए तेरहप्रकृतिक संक्रमस्थान होता है ।
$२५०. चौदह प्रकृतियोंका संक्रम करनेवाले उसी चौबीस प्रकृतिक सत्कर्मवाले जीवके पूर्वोक्त चौदह प्रकृतियोंमेंसे पुरुषवेदके उपशान्त होने पर प्रकृत संक्रमस्थान उत्पन्न होता है, क्योंकि जब तक कषायोंका उपशम नहीं होता तब तक इस स्थानकी उत्पत्ति होने में कोई विरोध नहीं श्राता। इस प्रकार चौबीस प्रकृतिक सत्त्वस्थानके सम्बन्धसे तेरह प्रकृतिक संक्रमस्थानको उत्पन्न करके प्रकारान्तरसे भी उस स्थानको उत्पन्न करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* तथा क्षपक जीवके आठ कषायोंका क्षय हो जाने पर जब तक अनानुपूर्वी संक्रमका सद्भाव है तव तक तेरह प्रकृतिक संक्रमस्थान होता है।
___$ २५१. झपकके सत्ताको प्राप्त इक्कीस प्रकृतियोंमेंसे आठ कषायोंका क्षय होनेपर संक्रमके योग्य चार संज्वलन और नौ नोकषाय ये तेरह प्रकृतियाँ स्पष्ट रूपसे पाई जाती हैं, इसीलिये जब तक अनानुपूर्वी संक्रम है ऐसा कहा है, क्योंकि आनुपूर्वी संक्रमका प्रारम्भ होनेपर लोभ संचलन संक्रमके योग्य नहीं रहनेसे दूसरे संक्रमस्थानकी उत्पत्ति देखी जाती है ।
विशेषार्थ-यहांसे तेरह प्रकृतिक संक्रमस्थान दो प्रकारसे उत्पन्न होता है ऐसा बतलाया है- प्रथम उपशमश्रेणिकी अपेक्षा और दूसरा इ.पक श्रेणिकी अपेक्षा । प्रथम स्थान तो चौवीस प्रकृत्रियों की सत्तावाले जीवके पुरुषवेदका उपशम होनेपर प्राप्त होता है और दूसरा स्थान आठ कषायोंका क्षय होनेपर प्राप्त हेता है । प्रथम प्रकारमें लोभ संज्वलनके सिवा ग्यारह कषाय और दो दर्शनमोहनीय इन तेरह प्रकृतियोंका संक्रम होता रहता है और दूसरे प्रकारमें चार संज्वलन और नौ नोकषाय इन तेरह प्रकृतियोंका संक्रम होता रहता है।
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