Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा• २६ ]
सामित्त जाणणोवायाभावादो।
ॐ दंसणमोहणीयं चरित्तमोहणीए ण संकमइ । . $ ७७. कुदो ? भिण्णजादित्तादो। * चरित्तमोहणीयं पि दंसणमोहणीए ण संकमइ ।
६ ७८. एत्थ वि कारणमणंतरपरूवियं । ण चेदेसिं भिण्णजाईयत्तमसिद्धं, दसणचरित्तपडिबद्धयाणं समाणजाईयत्तविरोहादो। समाणजाईए चेव संकमो होइ त्ति कुदो एस णियमो ? सहावदो।
* अणंताणुबंधी जत्तियाओ बझति चरित्तमोहणीयपयडीओ तासु सव्वासु संकमइ ।
६ ७९. कुदो ? समाणजाईयत्तं पडि भेदाभावादो । एदेण 'बंधे संकमदि' त्ति एसो वि णाओ जाणाविदो।
8 एवं सव्वानो चरित्तमोहणीयपयडीओ।
5.८०. सव्वत्थ समाणजाईयवज्झमाणपयडीसु संकमपउत्तीए विरोहाभावादो । कारणभूत अर्थपदका निर्देश करते हैं, क्योंकि इसके बिना उसका विशेष ज्ञान होनेका और कोई साधन नहीं है।
* दर्शनमोहनीय चारित्रमोहनीयमें संक्रमण नहीं करता।
७७. क्योंकि इन दोनोंकी भिन्न जाति है। * चारित्रमोहनीय भी दर्शनमोहनीयमें संक्रमण नहीं करता ।
६ ७८. यहाँ भी अनन्तर पूर्व कहा हुआ कारण कहना चाहिये । यदि कहा जाय कि ये भिन्न जातिवाली प्रकृतियाँ हैं यह बात नहीं सिद्ध होती सो यह बात भी नहीं है, क्योंकि दर्शन और चारित्रसे सम्बन्ध रखनेवाली प्रकृतियोंको एक जातिका होनेमें विरोध आता है।
शंका-समान जातिवाली प्रकृतिमें ही संक्रम होता है यह नियम किस कारणसे है ? समाधान-स्वभावसे ही ऐसा नियम है।
* अनन्तानुवन्धी, चरित्रमोहनीयकी जितनी प्रकृतियोंका बन्ध होता है उन सबमें संक्रमण करती है।
७६. क्यों कि समान जातिवाली होनेके प्रति इनमें कोई भेद नहीं है। इससे बन्धमें संक्रमण करती हैं इस न्यायका भी ज्ञान हो जाता है।
* इसी प्रकार चारित्रमोहनीयकी सब प्रकृतियोंके विषयमें जानना चाहिये ।
६८. क्योंकि सर्वत्र बंधनेवाली समानजातीय प्रकृतियों में संक्रमकी प्रवृत्ति होनेमें कोई विरोध नहीं आता।
विशेषार्थ-उक्त कथनका यह तात्पर्य है कि दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय ये एक जातिकी प्रकृतियाँ न होनेसे इनका परस्परमें संक्रम नहीं होता। हाँ चारित्रमोहनीयकी सब प्रकृतियोंका परस्परमें संक्रम सम्भव है फिर भी यह संक्रम बँधनेवाली समानजातीय प्रकृतियोंमें ही होता है इतना विशेष नियम है।
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