Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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मागणगवेसणाराण वेद कसाएमाओवजुत्तम् ।
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ बंधगो ६ चोदसग-णवगमादी हवंति उवसामगे च खवगे च । एदे सुराणहाणा दस वि य पुरिसेसु बोद्धवा ॥५२॥ णव अट्ट सत्त छक्कं पणग दुगं एक्कयं च बोद्धवा। एदे सुगणट्ठाणा पढमकसायोवजुत्तेसु ॥५३॥ सत्त य छक्कं पणगं च एक्कयं चेव आणुपुवीए। एदे सुण्णहोणा विदियकसाओवजुत्तेसु ॥५४॥ दिढे सुण्णासुण्णे वेद-कसाएसु चेव ढाणसु । मग्गणगवेसणाए दु संकमो आणुपुव्वीए ॥५५॥ कम्मंसियहाणेसु य बंधट्ठाणेसु सकमहाणे । एक्केक्केण समाणय बंधेण य संकमहाणे ॥५६॥ सादि य जहण्ण संकम कदिखत्तो होइ ताव एक्कक्के । अविरहिद सांतरं केवचिरं कदिभाग परिमाणं ॥५७॥ एवं दब्बे खेत्ते काले भावे य सण्णिवाद य। संकमणयं णयविदू या सुददेसिदमुदारं ॥५॥
पुरुषोंमें उपशामक और क्षपकसे सम्बन्ध रखनेवाले चौदह और नौ आदि शेष सब स्थान इस प्रकार ये दस संक्रमस्थान नहीं होते ।।१२।।
प्रथम क्रोधकपायसे युक्त जीवोंमें नौ, आठ, सात, छह, पाँच, दो और एक ये सात संक्रमस्थान नहीं होते ।।५३।।।
दूसरे मानकषायसे उपयुक्त जीवों में क्रमसे सात, छह, पांच और एक ये चार संक्रमस्थान नहीं होते ॥५४॥
इस प्रकार वेद और कषाय मार्गणामें कितने संक्रमस्थान हैं और कितने नहीं हैं इसका विचार कर लेनेपर इसी प्रकार गति आदि शेष मार्गणाओंमें भी यत्रतत्रानुपूर्वीके क्रमसे इनका विचार करना चाहिये ॥५५॥
मोहनीयके सत्कर्मस्थानों में और बन्धस्थानोंमें संक्रमस्थानोंका विचार करते समय एक एक बन्धस्थान और सत्कर्मस्थानके साथ आनुपूर्वीसे संक्रमस्थानोंका विचार करना चाहिये ॥५६॥
सादि, जघन्य, अल्पबहुत्व, एक जीवकी अपेक्षा काल, एक जीवकी अपेक्षा अन्तर ओर भागाभाग तथा इसी प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, द्रव्य
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