Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २७-५८]
ट्ठाणसमुक्त्तिणा अणुकरससंकमो जहण्णसंकमो अजहण्णसंकमो सादियसंकमो अणादियसंकमो धुवसंकमो अधुवसंकमो एगजीवेण सामित्तं कालो अंतरं गाणाजीवेहि भंगविचनो कालो अंतरं सरिणयासो अप्पाबहुअं भुजगारो पदणिक्खेवों वडि त्ति ।
$ २१४. एत्थ ट्ठाणसमुक्त्तिणादीणि वडिपजंताणि अणियोगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति त्ति सुत्तत्थसंबंधो । तत्थ समुकित्तणादीणि अप्पाबहुअपजवसाणाणि चउवीसअणियोगदाराणि. भागाभाग-परिमाण-खेत्त-पोसण-भावाणुगमाणमेत्थ देसामासयभावेण संगहियत्तादो। एवमेदाणि चउबीसमणियोगद्दाराणि सामण्णेण सुत्ते परूविदाणि । एदेसु सव्व-णोससव्व-उकस्साणुकस्स-जहण्णाजहण्णसंकमा सण्णियासो च एत्थ ण संभवंति, पयडिट्ठाणसंकमे णिरुद्धे तेसिं संभवाणुवलंभादो। तदो सेससत्तारसअणियोगदाराणि एत्थ गहियव्वाणि । पुणो एदेहितो पुधभूदाणि भुजगारादीणि तिण्णि अणियोगद्दाराणि सुत्तणिहिट्ठाणि घेत्तव्वाणि । संपहि एवं परूविदसव्वाणियोगद्दारेहि गाहासुत्तत्थविहासणं कुणमाणो चुण्णिसुत्तयारो तत्थ ताव हाणसमुक्त्तिणापरूवणट्ठमुवरिमपबंधमाह ।
8 ठाणसमुक्त्तिणा त्ति जं पदं तस्स विहासा जत्थ एया गाहा ।
जघन्यसंक्रम, अजघन्यसंक्रम, सादिसंक्रम, अनादिसंक्रम, ध्रुवसंक्रम, अध्रुवसंक्रम, एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल और अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर, सनिकर्ष, अल्पवहुत्व, भुजगार, पदनिक्षेप और वृद्धि ।
६२१४. यहाँ स्थानसमुत्कीर्तनासे लेकर वृद्धि पर्यन्त अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं यह इस सूत्रका अभिप्राय है। उनमेंसे समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व तक चौवीस अनुयोगद्वार हैं, क्योंकि इनमें देशामर्षकभावसे भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन और भावानुगमका संग्रह हो जाता है। इस प्रकार ये चौबीस अनुयोगद्वार सामान्यरूपसे सूत्रमें कहे गये हैं। इनमेंसे सर्वसंक्रम, नोसर्वसंक्रम, उत्कृष्टसंक्रम, अनुत्कृष्टसंक्रम, जघन्यसंक्रम, अजघन्यसंक्रम और सन्निकर्ष ये सात अनुयोगद्वार यहाँ सम्भव नहीं हैं, क्योंकि प्रकृतिस्थानसंक्रमके विवक्षित रहते हुए उक्त अनुयोगद्वारोंका पाया जाना सम्भव नहीं है। इसलिये यहाँ पर शेष सत्रह अनुयोगद्वारोंको ग्रहण करना चाहिये । तथा इनसे अतिरिक्त भुजगार आदि जो तीन अनुयोगद्वार हैं जो कि सूत्रनिर्दिष्ट हैं उनको ग्रहण करना चाहिये। अब इस प्रकार कहे गये सब अनुयोगद्वारोंके द्वारा गाथासूत्रोंके अर्थका विशेष व्याख्यान करने की इच्छासे चूर्णिसूत्रकार पहले उन अनुयोगद्वारोंमेंसे स्थानसमुत्कीर्तनाका कथन करनेके लिये आगेके प्रबन्धका निर्देश करते हैं
* अब 'स्थानसमुत्कीर्तना' पदका विशेष व्याख्यान करते हैं जिसमें एक गाथा निबद्ध है।
१. ता०-श्रा०प्रत्योः भुजगारो अप्पदरो अवविदो अवत्तव्वत्रो पदणिक्खेवो इति पाठः ।
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