Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २७
ट्ठाणसमुक्त्तिणा * एत्थ पयडिणिद्देसो कायव्यो ।
$ २१८. एदेसु अणंतरणिहिट्ठसंकमासंकमट्ठाणेसु एदाहिं पयडीहिं एदं ठाणं होइ ति जाणावणणिमित्तं पयडिणिद्देसो कायव्यो त्ति भणिदं होइ । तत्थ ताव अट्ठावीसपयडिट्ठाणस्स पयडिणिद्देसो सुबोहो ति कादृण तदसंकमपाओग्गत्ते कारणगवेसणहूँ पुच्छावकमाह -
अट्ठावीसं केण कारणेण ण संकमइ ? २१९. सुगममेदमासंकावयणं ।। ॐ दंसणमोहणीय-चरित्तमोहणीयाणि एक्के कम्मि ण संकमंति । ६ २२०. कुदो ? सहावदो चेव तेसिमण्णोण्णपडिग्गहसत्तीए अभावादो।
* तदो चरित्तमोहणीयस्स जानो पयडीयो बज्झति तत्थ पणुवीसं पि संकमंति।
। २२१. समाणजाइयत्तं पडि विसेसाभावादो। अबज्झमाणियासु किं कारणं णत्थि संकमो ? ण, तत्थ पडिग्गहसत्तीए अभावादो।
दसणमोहणीयस्स उक्कस्सेण दो पयडीओ संकमंति । आगेका सूत्र कहते हैं
* यहाँ पर प्रकृतियोंका निर्देश करना चाहिये ।
६२१८. ये जो समनन्तरपूर्व संक्रमस्थान और असंक्रमस्थान बतला आये हैं उनमेंसे इस स्थानकी इतनी प्रकृतियां होती हैं यह जतानेके लिये प्रकृतियोंका निर्देश करना चाहिये यह उक्त सूत्रका तात्पर्य है। उसमें भी अट्ठाईस प्रकृतिक स्थानकी प्रकृतियोंका निर्देश सुगम है ऐसा मान कर वह स्थान संक्रमके अयोग्य क्यों है इसके कारणका विचार करनेके लिये पृच्छासूत्र कहते हैं
* अट्ठाईस प्रकृतिक स्थान किस कारणसे संक्रमित नहीं होता । $ २१६. यह आशंक सूत्र सुगम है। * क्योंकि दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय ये परस्परमें संक्रम नहीं करतीं। $ २२०. क्योंकि स्वभावसे ही इनमें परस्पर प्रतिग्रहरूप शक्ति नहीं पाई जाती है।
* इसलिये चारित्रमोहनीयकी जितनी प्रकृतियाँ बंधती हैं उनमें पच्चीस प्रकृतियाँका ही संक्रमित होती हैं !
६ २२१. क्योंकि एक जातिकी अपेक्षा उनमें कोई भेद नहीं है । शंका नहीं बंधनेवाली प्रकृतियोंमें संक्रम क्यों नहीं होता ? समाधान नहीं क्योंकि उनमें प्रतिग्रहरूप शक्ति नहीं पाई जाती । * तथा दर्शनमोहनीयकी अधिकसे अधिक दो प्रकृतियाँ संक्रमित होती हैं।
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