Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलास हिदे कसा पाहुडे
[ बधगो ६
$ २२२. किं कारणं ? अट्ठावीस संतकम्मियमिच्छाइडिम्म मिच्छत्तपडिग्गहेण सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणं संकतिदंसणादो ।
हर
* एदेण कारण अडावीसाए पस्थि संकमो ।
९ २२३. जेण कारणेण तिन्हं दंसणमोहपयडीणमकमेण संकमसंभवो णत्थि ते कारण अट्ठावीसाए संकमो णत्थि त्ति भणिदं होड़ ।
$ २२४. एवमेत्तिएण पबंधेण अट्ठावीसपयणिट्ठाणस्स असंकमपाओग्गत्ते कारणं परूविय संपहि सत्तावीसपयडिसकमट्टाणस्स पयडिणिस विहासणट्टमिदमाह - * सत्तावीसाए काओ पयडीओ ।
९ २२५. सुगममेदं पुच्छासुतं ।
* पणुवीसं चरित्त मोहणीयाओ दोणि दंसणमोहणीयाओ ।
$ २२२. क्योंकि अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्तावाले मिथ्यादृष्टिके मिथ्यात्व प्रकृति प्रतिग्रहरूप प्रकृतियों का ही संक्रम पाया जाता है । तथा संक्रम देखा जाता है। आशय यह हैं कि होता किन्तु अधिकसे अधिक दो प्रकृतियोंका
रहती है, उसमें सम्यक्त्व तथा सम्यग्मिथ्यात्व इन दो सम्यग्दृष्टि के भी मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वका ही दर्शन मोहनीय की तीन प्रकृतियों का एक साथ संक्रम नहीं ही संक्रम पाया जाता है ।
* इस कारण से अट्ठाईस प्रकृतिक स्थानका संक्रम नहीं होता ।
$ २२३. यतः दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियों का युगपत् संक्रम होना सम्भव नहीं है अतः अट्ठाईस प्रकृतिक स्थानका संक्रम नहीं होता यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
विशेषार्थ — मोहनीयकी अट्ठाईस प्रकृतियां मुख्यतया दर्शमोहनीय और चारित्रमोहनीय इन दो भागों में बढ़ी हुई हैं। इनमें से दर्शनमोहनीय के तीन और चारित्रमोहनीय के पच्चीस भेद हैं । ऐसा नियम है कि दर्शमोहनीयका चारित्रमोहनीय में और चारित्रमोहनीयका दर्शनमोहनीय में
कम नहीं होता, क्योंकि इनकी एक जाति नहीं है । तथानि जिस समय चारित्रमोहनीयकी जितनी प्रकृतियाँ बंधती हैं उनमें उसकी सब प्रकृतियों का तो संक्रम बन जाता है किन्तु दर्शनमोहकी अपेक्षा एक साथ दो प्रकृतियोंसे अधिकका संक्रम नहीं होता, क्योंकि मिथ्यात्व गुणस्थान में मिथ्यात्व प्रकृति प्रतिग्रहरूप रहती है, वहाँ उसका संक्रम सम्भव नहीं और सम्यग्दृष्टिके सम्यक्त्व प्रकृति प्रतिग्रहरूप रहती है, वहां उसका संक्रम सम्भव नहीं है । इसीसे प्रकृत में अट्ठाईस प्रकृतिक संक्रमस्थान नहीं होता यह बतलाया है ।
२२४. इस प्रकार इतने प्रबन्धके द्वारा अट्ठाईस प्रकृतिक स्थान संक्रमके योग्य है इसका कारण कह कर अब सत्ताईस प्रकृतिक संक्रमस्थानकी प्रकृतियोंका विधान करनेके लिये यह सूत्र कहते हैं
* सत्ताईस प्रकृतिक स्थानकी कौनसी प्रकृतियाँ हैं ?
९ २२५. यह पुच्छासूत्र सुम है।
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* चारित्रमोहनीयकी पच्चीस और दर्शनमोहनीयकी दो ये सत्ताईस प्रकृतियाँ हैं ।
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