Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २६]
सण्णियासो सब्बोवसमकरणे । ण च सव्वप्पणोवसंताणं संकमसंभवो, विरोहादो'। जइ एवं, मिच्छत्तस्स वि तत्थ संकमो मा होउ, उवसंतत्तं पडि विसेसाभावादो त्ति ? ण, दंसणतियम्मि उदयाभावो चेव उवसमो त्ति गहणादो।।
$ १५१. एवं मिच्छत्तणिरंभणेण सेसपयडीणमोघेण सण्णियासं काऊण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तादीणमप्पणं कुणमाणो उत्तरसुत्तं भणइ ।
एवं सणियासो कायव्यो । $ १५२. एवमेदीए दिसाए सेसकम्माणं पि सण्णियासों णेदव्यो त्ति भणिदं होइ।
शंका-मिथ्यात्वका संक्रामक जीव उक्त इक्कीस प्रकृतियोंका असंक्रामक कैसे है ?
समाधान-उक्त इक्कीस प्रकृतियोंका सर्वोशम हो जानेपर वह उनका असंक्रामक होता है । यदि कहा जाय कि जिन प्रकृतियोंका सर्वोपशम हो गया है उनका भी संक्रम सम्भव है सो यह बात नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेमें विरोध आता है।
शंका-यदि ऐसा है तो मिथ्यात्वका भी वहाँ संक्रम मत होओ. क्योंकि उपशान्तपनेकी अपेक्षा उनसे इसमें कोई विशेषता नहीं है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियोंमें उनका उदयमें न आना ही उपशम है यह अर्थ लिया गया है।
विशेषार्थ—सूत्रमें यह बतलाया है कि जो मिथ्यात्वका संक्रामक है वह कदाचित् अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क आदि २१ प्रकृतियोंका संक्रामक है और कदाचित् असंक्रामक । जब तक इन इक्कीस प्रकृतियोंका उपशम नहीं होता तब तक संक्रामक है और उपशम हो जानेपर असंक्रामक है। इस पर यह शंका हुई कि जो द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि २१ प्रकृतियोंका उपशम करता है उसके दर्शनमोहनीयत्रिकका भी उपशम रहता है, अतः जैसे उसके २१ प्रकृतियोंका संक्रम नहीं होता वैसे मिथ्यात्वका भी संक्रम नहीं होना चाहिये, इसलिये मिथ्यात्वका संक्रामक उक्त २१ प्रकृतियोंका असंक्रामक भी है यह कहना नहीं बनता है। इस शंकाका जो समाधान किया है उसका भाव यह है कि दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियोंका उदयमें न आना यही उनका उपशम है, अतः उनका उपशम रहते हुए भी संक्रम बन जाता है इसलिये चूर्णिसूत्रकारने जो यह कहा है कि 'जो मिथ्यात्वका संक्रामक है वह शेष २१ प्रकृतियोंका कदाचित् संक्रामक है और कदाचित् असंक्रामक है' सो इस कथनमें कोई बाधा नहीं आती है। आशय यह है कि उपशमनाके विधानानुसार २१ प्रकृतियोंका सर्वोपशम होता है किन्तु तीन दर्शनमोहनीयका उपशम हो जाने पर भी उनका यथासम्भव संक्रम और अपकर्षण ये दोनों क्रियाएं होती रहती हैं, अतः उक्त कथन बन जाता है।
१५१. इस प्रकार मिथ्यात्वको विवक्षित करके शेष प्रकृतियोंका ओघसे सन्निकर्ष बतला कर अब सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व आदि प्रकृतियोंको प्रधान करके आगेका सूत्र कहते हैं ।
* इसी प्रकार शेष कर्मोंका सन्निकर्ष करना चाहिये।
६१५२. इस प्रकार इसी पद्धतिसे शेष कर्मोंके सन्निकर्षका भी कथन करना चाहिये यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
१. ता० प्रतौ -संभवाविरोहादो इति पाठः। २. प्रा०प्रतौ एवमेदीए सेसकम्माणं इति पाठः। ३. ता०प्रतौ -कम्माणं सरिणयासो इति पाठः।
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