Book Title: Kasaypahudam Part 08
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ माणओ सम्मत्ताहिमुहो होऊणंतरकरणं करिय मिच्छत्तपढमट्ठिदिचरिमसमए सम्मामिच्छत्तचरिमुव्वेल्लणफालिं परसरूवेण संकामिय उवसमसम्माइट्ठी पढमसमए सम्मामिच्छत्तसंतुप्पायणवावारेणेयसमयमंतरिय पुणो विदियसमए संकामओ जादो, लद्धमंतरं ।
* अणंताणुबंधोणं संकामयंतरं केवचिरं कालादो होदि ।
१०८. सुगमं। 9 जहणणेण अंतोमुहुत्तं ।
$ १०९. विसंजोयणचरिमफालिं पादिय अंतरिदस्स पुणो सव्वलहुएण कालेण संजुत्तस्स बंधावलियवदिक्कतसमए लद्धमंतरं कायव्वमिदि वुत्तं होइ ।
उक्कस्सेण वेछावहिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । ६ ११० तं जहा—पढमसम्मत्तं घेत्तण उवसमसम्मत्तकालब्भतरे अणंताणुबंधिं विसंजोइय वेदयसम्मत्तं पडिवज्जिय पढमछावढि भमिय तत्थंतोमुहुत्तावसेसे सम्मामिच्छत्तं पडिवजिय पुणो अंतोमुहुत्तेण सम्मत्तमुवणमिय विदियछावट्ठिमणुपालिय थोवावसेसे मिच्छत्तं गदस्स लद्धमंतरं होदि। एत्थ पुवमणंताणुबंधिं विसंजोइय द्विदस्स उवसम
सम्यक्त्वके अभिमुख होकर और अन्तरकरण करके मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिके अन्तिम समयमें सम्यग्मिथ्यात्वकी अन्तिम उद्वेलना फालिका पररूपसे संक्रमण करके उपशमसम्यग्दृष्टि हो गया है वह अपने प्रथम समयमें सम्यग्मिथ्यात्वके सत्त्वके उत्पन्न करनेमें लगा रहनेके कारण एक समय तक सम्यग्मिथ्यात्वके संक्रमका अन्तर करके दूसरे समयमें फिरसे संक्रामक हो गया। इस प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वके संक्रामकका जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त हो जाता है ।
* अनन्तानुबन्धियोंके संक्रामकका अन्तरकाल कितना है। ६ १०८. यह सूत्र सुगम है । * जघन्य अन्तरकाल अन्तमहते है।
$ १०६ कोई एक जीव है जिसने विसंयोजनाकी अन्तिम फालिका पतन करके अनन्तानुबन्धियोंके संक्रमका अन्तर किया। फिर अति स्वल्प काल द्वारा अनन्तानुबन्धियोंसे संयुक्त होकर बन्धावलिकालके समाप्त होनेके अनन्तर समयमें पुनः संक्रामक हो गया। इस प्रकार अनन्तानुबन्धियोंके संक्रामकका जघन्य अन्तरकाल प्राप्त करना चाहिये यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
* उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक दो छयासठ सागर है ।
६ ११०. खुलासा इस प्रकार है-कोई एक जीव है जिसने प्रथमोपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करके उपशमसम्यक्त्वकालके भीतर अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना की। फिर वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करके प्रथम छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण किया। फिर उसके अन्तमें अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहने पर सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। फिर अन्तर्मुहूर्तमें सम्यक्त्वको प्राप्त करके और उसके साथ दूसरे छयासठ सागर काल तक रहा । फिर उसमें थोड़ा काल शेष रहने पर मिथ्यात्वमें गया। इस प्रकार अनन्तानुबन्धियोंके संक्रामकका उत्कृष्ट अन्तरकाल प्राप्त हो जाता है। यहां पर प्रारम्भमें अनन्तानुवन्धीकी विसंयोजना करके स्थित हुए जीवके जो उपशमसम्यक्त्वका काल शेष बचता
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